*रोष दिखाने का *
तुम्हारी तरह बक़्त कहाँ है, हमें रोष दिखाने का ।
करते रहो बदतमीजी भर ,हमें खौप से डराने का।।
हम जुट जाते हैं काम पे ,तो सर करके छोड़ते हैं,
मिलता कहाँ है मजा हमें ,वो तुम जैसा उड़ाने का।।
हम नहीं कोसते हैं मुकद्दर ,बाँहों पे घमंड करते हैं ,
फ़िजा का इश्क़ है ,वो मेहनत से लड़ने लड़ाने का ।।
शूलियों पे चढ़ते आये हैं , बुजुर्ग हमारे अब् तक ,
पता है हम भी चढ़ेंगे , क्या मतलब है घवड़ाने का।।
ग़र समझदार हो तुम भी , तो ये पेंचों परचम क्यों,
पाला है कैसा हुँनर ये , गैरों को धार में चढ़ाने का ।।
कौन मरा है वतन की ख़ातिर ? तुम और तुम्हारा
मग़र शउर आता है ‘साहब’ ,आगे हमें बढाने का ।।