रोम-रोम में राम….
जन-जन के आदर्श तुम, दशरथ नंदन ज्येष्ठ।
नरता के मानक गढ़े, नमन तुम्हें नर श्रेष्ठ।।
धन्य-धन्य प्रभु आप हैं, लिया राम-अवतार।
मानवता-हित खोलने, उच्च चेतना-द्वार।।
कण-कण में श्रीराम हैं, रोम-रोम में राम ।
मन-मंदिर मेरा बने, उनका पावन धाम ।।
तोड़ न कोई राम का, निर्विकल्प हैं राम।
राम सरिस बस राम हैं, और न कोई नाम।।
लोभ- मोह में घिर मनुज, हुआ बुद्धि से मंद।
आएँगे किस विध प्रभो, मन की साँकल बंद।।
हृदय कामनागार तो, कामधेनु हैं आप।
एक छुअन भर आपकी, हर ले हर संताप।।
तेरा-मेरा मेल क्या, तू दाता मैं दीन।
तू सबका सिरमौर है, मैं लुंठित मतिहीन।।
जप ले मनके नाम के, मेटें मन के ताप।
राम नाम के जाप से, धुल जाते सब पाप ।।
राम सरिस हो आचरण, राम सरिस हो त्याग।
मिटें तामसी वृत्तियाँ, जागें जग के भाग।।
राम-नाम सुमिरन करो, कट जाएँ भव-फंद।
कमल-कोष से मुक्त हो, उड़ते ज्यों अलिवृंद।।
राम हमारी आस्था, राम अमिट विश्वास।
राम सजीवन प्राण हित, राम हमारी श्वास।।
राम नाम सुमिरन हरे, त्रिविध जगत के ताप।
साँसें अनथक कर रहीं, राम नाम का जाप।।
राम-राम के जाप में, होंगे हम उत्तीर्ण।
रोम-रोम पर देख लो, राम-नाम उत्कीर्ण।।
मन-कागज जिव्हा-कलम, रचे नव्य आलेख।
राम-राम बस राम का, बार-बार उल्लेख।।
© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद