रोपाई
नजर पड़ी वो रूप रही थी,
छलकत धन की क्यारी।
गौरवर्ण पर पंक लपेटे,
छवि थी उसकी प्यारी।
कसे कमरबंद पर कर था,
लतफत थी सारी साड़ी।
टिपटिप बूंदें मेघराज की,
अधरों को बनाती न्यारी।
देख प्रकृति की छटा निराली,
आकुल मन ने ली अँगड़ाई,
जी मेरा भी करता, मैं भी
करता खूब रोपाई।।