रोने नहीं देती
जुदा दिल से तुम्हारी याद को होने नहीं देती
खुली आँखों में सपनों की फसल बोने नहीं देती
मुजफ्फरपुर से आई देखकर जब मौत का मंजर
पलक पर नींद बैठी है मगर सोने नहीं देती
फकत इतनी सी है बस बात गर माली सजग होता
महक फूलों की..वादी इस तरह खोने नहीं देती
ग़ज़ल चुपचाप सब कुछ देख तो लेती मगर गैरत
सलीब अन्याय का अब पीठ पर ढोने नहीं देती
गले में घुट रही चीखों ने खामोशी से समझाया
सियासत घाव तो करती है पर रोने नहीं देती