रोता हुआ जंगल
रोता हुआ जंगल
आज जंगल अकेला हो गया है।आसपास कोई नहीं दिखायी दे रहा है।चारोंतरफ सन्नाटा और उदासी।कोई बात करनेवाला नहीं।कभी वृक्षों से प्रेम करनेवाला,हँस कर मिलने और बात करने वाला जंगल आज वृक्षविहीन हो कर निराश और हताश सा लग रहा है।पेड़ों की हरियाली से आच्छादित प्रसन्नमन जंगल आज वीरान हो कर विलाप कर रहा है। परिंदों के कलरव से गुंजायमान जंगल आज करुणक्रन्दन कर रहा है।जंगल के समस्त जीव जंतु आज साथ छोड़ कर पलायन कर चुके है।जंगल के सीने को चीर कर बड़े-बड़े महल और उद्योग वहाँ पर अपना आधिपत्य स्थापित कर चुके है।जंगल कराहता हुआ रुदन कर रहा है।रोते हुए जंगल की दयनीय स्थिति को देख कर भला कौन संवेदनशील मानव व्यथित नहीं होगा?जंगल की अस्मिता समाप्तप्राय है।अपने ही मरे हुए शरीर को देख कर स्वयं जंगल रोता हुआ साक्षात दिखायी दे रहा है।
कवि रत्न डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।