रोटी
||रोटी || लघुकथा
पुलियें की चढान घुटनों के दर्द को बढा देती है पर मंदिर जाने की आस्था नयी तरावट के साथ कदमो में जोश भरने लगती है, पीछे से “जय महादेव” के परिचित स्वर कदमों को रोक देते है, वही वृद्ध भक्त सज्जन ऋषिकेश मंदिर (स्थानीय मंदिर ) से पूजा अर्चना कर राजा कोठी स्थित महादेव मंदिर की पूजा हेतु शिथिल कृश पैरो में भीतरी शक्ति की विवशता का अतिक्रमण करते हुए साईकिल के पैडलों को गतिशील बनाने की शेष्टा के साथ मुझे संबोधित कर रहें हैं ” जय महादेव पुजारी जी , कैसे हैं आप ? ” मेरे प्रश्न की प्रतिक्रिया में वे साईकिल से उतर कर हांफने से लगते है , गहरी संवेदना पूर्ण भीतरी भाव किरण अनायास ही सारे वातावरण में समा जाती है, अधिक आत्मीयता से मेरे स्वर मुझसे ही अज्ञात होकर निकलते हैं ” चढान पर साईकिल से उतर जाया करो , समतल और ढलान लायक ही अब शक्ति बची है …! ” उनके चेहरे की वेदना के करूण पावन सागर में मैं डूबने उतरने लगता हूँ ..” कहीं दूर से बिलखती हुई जिन्दगी की अन्तर वेदना का अहसास अब सरकता हुआ मेरे भीतर को रौदने लगता है , वे कहने लगते है ” रोटी का इंतजाम तो करना ही पडेगा, दो मंदिरों की पूजा के कुल 4000/- रूपये मासिक मिल जाते हैं घर बार रहा नही , बच्चों ने कब्जा कर निकाल दिया ” उनकी आंखो मे अथाह वेदना की कालिमा की घटाऐ घिरने लगती है “बच्चे कहते है कि दुसरों के बाप अपने बेटों के लिए क्या क्या नहीं करते , तुमने अपनी जिन्दगी में बेटो के क्या जोडा ” देखता हूँ अब उनके चेहरे पर विशाद और ग्लानि की मिली झूली रेखाऐं चेहरे को विकृत बना रही है, मैं भीतर ही भीतर संवेदना के अपरिमित शब्दो से ढांढस देने की कोशिश करने लगता हूँ …! पर शब्द की सीमा समाप्त हो चुकी है भावनाओ का गुंफन घना होकर कंठ को अवरोधित करने लगा है !
चढान पूरी होते ही सांई नाथ का मंदिर आ जाता है, वे एक बार फिर जय महादेव का नाम लेकर साईकिल चढने लगते है , मै दोनो हाथों से नमस्कार कर साईं बाबा के लिए प्रसाद व फूल माला लेने के लिए दुकान की तरफ बढने लगता हूँ ।
भक्तो की लंबी कतार अपनी अपनी श्रद्धा व क्षमता अनुकूल अर्थ्य पूजा में लगी है, देखता हूँ अधिकांश बुढे और बच्चे को मंदिर की परिक्रमा करते हुए, मैं बढता हूँ पुजारी की तरफ , प्रसाद और माला लेकर देते ही पुजारी माला साई बाबा के चरणों में रख देता हैं प्रसादी साई बाबा के मुख से स्पर्श कर आधी थाली में डाल कर लौटा देता है । मैं कुछ समय तक आँखे बंद कर खुद का समर्पण करने की शेष्टा करता हूँ पर आँखे अधिक समय तक बंद नही रख पाता ।
बाहर आकर देखता हूँ मुंडेर पर एक लंबी कतार साधुओ के वस्त्र पहने,साक्षात साधुओं जैसे व्यक्तियों पर पडती है, आपस में लडते झगडते , एक दुसरे की बात पर हंसते व कटाक्ष करते हुए कि एक अपंग सा व्यक्ति दोनो हाथों से विकलांगों की साईकिल दोनो हाथो से लगभग दौडाता हुआ मेरे सामने हाथ फैला देता है, तभी मेरे मन में विचार कौंधता हैं और जेब मे रखा हाथ वापस खाली बाहर खींच लेता हूँ कल ही मेरे साथी ने बताया था ,” इसे पैसे मत देना एक नंबर का ढौंगी है दबाईयों का थेला गले मे लटका कर, अपनी बिमारी का हवाला देकर लोगों को मूर्ख बनाता है । और पैसा शराब मे उडा देता है !” मै अनदेखा कर वहाँ से वापस ढलान पर आ जाता हूँ थोड़ा सा आगे पुलिये पर बनी मुंडेर पर लंबे उलझे बालो से ढका एक भिखारी व्यक्ति बेठा है, उसके इर्द गिर्द बहुत सारे कुत्ते खड़े हुए पूँछ हिला रहे है, उत्सुकतावश मैं भी उस मुंडेर पर लगभग उसी के करीब पर थोड़ा सा दूर बैठ जाता है, पैरों मे हल्का सी राहत का अहसास पाता हूँ , भिखारी के पास टाट के बोरे में बहुत सारी रोटिया है जो हंसता हुआ कुत्तों के साथ खेलता हुआ उनके मुंह मे रोटी के टुकड़े डाल रहा है, मैं अवाक सा यह अदभूत दृश्य देख रहा हूँ ।
अनेकानेक विचारो के तर्क वितर्क कई अवधारणाओं का तानाबाना मन-मस्तिष्क में गूंथने लगता हूँ , मै अपने ही विचार के जाल से निकलने की कोशिश करता हुआ उस रोटी दाता की तरफ सरकने लगता हूँ । विस्मय से वह मुझे देखने लग जाता है, और अपना काम जारी रखता है, मै जेब से दस रूपये का नोट निकाल कर उसकी और बढाने लगता हूँ कि यकायक अट्टहास करता हुआ वह भिखारी अपना झोला उठा कर पुलिये के नीचे नदी की ढलान उतरने लगता है, कुत्ते उसका पीछा करने लगते है और मैं विस्मय में बैठा विचार मग्न उसे जाते देख रहा हूँ …..क्या यह संभव है …क्या यह सच है… इस दुनिया में …… !!!
छगन लाल गर्ग ” विज्ञ “!