*”रोटी”*
“रोटी”
चलते चलते वक्त का पहिया मानो जैसे थम सा गया है।
दरबदर ठोकरें खाते हुए न जाने क्यों बिखर गया है।
हौसले बुलंद हैं मगर हालातों से, लाचार बेबस और मजबूर हो गया है।
दो जून की रोटी की तलाश में न जाने कहां कहाँ भटक रहा है।
दर्दनाक हादसों संवेदनाओं से पलायन का दौर रोजी रोटी छीनता गया है।
भूखे प्यासे रहकर नंगे पैर हजारों मील दूरी फासलों को तय करते हुए बढ़ते चला है।
मंजिल तय करते हुए घर पहुंच कर रोटी के लाले पड़ गए काम पेशा बदल गया है।
दो जून रोटी की खातिर बेबस ,लाचार मजबूर हो गया है।
मेहनतकश इंसान आज बेहाल निढाल कमजोर निःसहाय हो गया है।
जीवन भर कठिन परिश्रम करता रोजी रोटी की तलाश में संघर्षो से जूझ रहा है।
दो जून रोटी की तलाश में न जाने क्यों मानव शरीर इधर उधर भटक रहा है।
शशिकला व्यास शिल्पी✍️