रोटी
रोटी की लगाकर आस ,
गाँव छोड़ चला था शहर ।
आई एक विपदा भारी,
टूट पड़ी बनकर कहर ।।
अपना पसीना सींच सींच कर,
मालिक को किया मालामाल ।
जब हुआ काम सारा बंद ,
हमे बाहर किया, हुए बेहाल ।।
रात दिन चल रहे भूखे प्यासे ,
मिलता नहीं कोई ठौर ठिकाना ।
चल पड़े हम अपने गाँव की ओर,
हे ! ईश्वर ऐसे दिन फिर न दिखाना ।।
अभी मंजिल बहुत दूर है,
बाल बच्चे भी मेरे संग है ।
आँसू गिरते फिर सूख जाते,
कैसी यह जीवन की जंग हैं ।।
एक एक रोटी को तरस रहे,
हम मजदूर कितने लाचार ।
चल चल पड़ गए कितने छाले,
कैसी किस्मत की यह दुत्कार ।।
धरा भी दे रही घोर तपन,
सूरज बरसाए अंगारे लाल ।
देख देख मेरे नन्हे बच्चों को,
किसी को नही होता मलाल ।।
मानवता अब भी कुछ शेष है,
मिल रहा हमको कुछ सहयोग ।
देख हमारी दशा पसीज गए मन,
सरकार भी दे रही कुछ भोग ।।
सब रोटी के लिए भटक रहे,
गए थे शहर , छोड़ कर गाँव ।
अब आ रहे अपनो के बीच ,
लेकर नम आँखे छाले भरे पाँव ।।