” रोज “
“रोज”
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जीवन निसिथ रश्मि जलकर
अंधियारे में धूप निकलती,
रोज जीवन की बाती बनकर
बैठ छांव में जिंदगी जलती !
देख विभावरी अस्त की ओर
रोज सुबह की लाली आती,
उषाकाल में दिनकर जगकर
रोज वक्त की बाती जलती !
एक पथ जाता अंधियारा चलकर
रोज दूसरे पथ पर रश्मिरथी आती,
जीव मौन अंकुरित जीवन पथ पर
समय धरा में प्रस्फुटित होती जाती!
जीवन पल दो पल परिधि की गाड़ी
एक से तम और दूजे से ज्योति आती,
निसिथ भोर मिलती जिस संगम पर
नव कलरव निस दिन धरा मचलती !
आह्वाहन सुन शंखनाद की
भृकुटि रवि की तन जाती,
जड़ चेतन चैतन्य धरा सब
जीवन पथ पर बढती जाती!
छितिज धरा स्वागत करती
फैला बाहे निज उषा आती,
कलरव कर सब पंछी जगते
धर्म पथ पर प्रकृति चलती !
सार बीज प्रस्फुटित बसुधा की गोद
समय धरा चीर नव पल्लव चलती,
नित आरोह जीवन कुन्ज की बेल
गोद ले बसुधा रोज सीचती जाती!
रोज रवि सा जलता श्रम साधक
कर्म पथ लहू सिराओ में जलती,
घिसती-मिटती लकिरे हाथों की
श्रम की तकदीरें अथक चलती !
मय डूबा मयखाने शाकी जाता रोज
डगमग-डगमग पावं पे हाला करती,
भरता और छलकता मधु का प्याला
गिरते-उठते कन्धों से मधुशाला चलती!
मधुमक्खी पुष्प आलिंगन होकर
करती अठखेली मकरंद चूसती,
ले परागकण मुख रोज है उड़ती
नित क्रिया छत्ते में मकरंद भरती!
नित प्रवाह जीवन नदी की धारा
बिसाहड़ा पूरन कालचक्र करती
कर्म पथ के योगी सुन सार क्षणी
सरण गहो तुम प्रभु कृपा हो जाती!
*****सत्येन्द्र प्रसाद साह (सत्येन्द्र बिहारी)*****