“रोज ठगे हम जाते हैं ” !!
मुस्कानों के तीर चलाकर , पहले तो इठलाते हैं !
नई नई सी आस जगा कर , फिर हमसे शरमाते हैं !!
रोज कैलेंडर दिन बदले है , और बदलता तारीखें !
कितने रंग बदलता चेहरा , समझ नहीं हम पाते हैं !!
बड़ा कठिन हैं करें भरोसा , करना भी मजबूरी है !
हँसी हँसी में खूब ठगी है , रोज ठगे हम जाते हैं !!
अफवाहें तैरा करती है , सरगोशी बाज़ारों में !
विश्वासों का हनन हो रहा , मन ही मन घबराते हैं !!
सब्जबाग देखे थे हमने , पाला उन पर भारी है !
कौन करेगा भरपाई अब , हर पल हम अकुलाते हैं !!
ठिठुरी सी आशाएं बैठी , चलती सर्द हवाएं हैं !
उम्मीदों की किरण जगाकर , रोज कहर दिन ढाते हैं !!
लिये हाथ में हाथ तुम्हारा , साथ नहीं छोड़ा जाये !
अगर हौंसला साथ रहे तो , कदम नहीं डिग पाते हैं !!
स्वरचित / रचियता :
बृज व्यास
शाजापुर ( मध्यप्रदेश )