रोजी रोटी के क्या दाने
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एक व्यक्ति इस जीवन में आया है तो जीवन को चलाने के लिए जीवन पर्यंत उसे अथक प्रयास भी करने पड़ते हैं। लेकिन इस जीवन पर्यंत अथक परिश्रम करने के चक्कर में आदमी पूरा का पूरा घनचक्कर बन जाता है। इसी विषय वस्तु पर आधारित प्रस्तुत है हास्य व्ययंगात्मक कविता , रोजी रोटी के क्या दाने, खाने बिन खाने पछताने।
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रोजी रोटी के क्या दाने,
खाने बिन खाने पछताने।
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रोजी रोटी के चक्कर में,
साहब कैसे बीन बजाते,
भैंस चुगाली करती रहती,
राग भैरवी मिल सब गाते,
माथे पर ताले लग जाय,
मंद बुद्धि बंदा बन जाय ,
और लोग बस देते ताने,
रोजी रोटी के क्या दाने,
खाने बिन खाने पछताने।
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रोजी रोटी चले हथौड़े,
हौले माथे सब बम फोड़े,
जो भी बाल बचे थे सर पे,
एक एक करके सब तोड़े,
कंघी कंघा काम न आए,
तेल ना कोई असर दिखाए,
है माथे चंदा उग आने,
रोजी रोटी के क्या दाने,
खाने बिन खाने पछताने।
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कभी सांप को रस्सी समझे,
कभी नीम को लस्सी समझे ,
जपते जपते रोटी रोटी,
क्या ना करता छीनखसोटी,
प्रति दिन होता यही उपाए,
किसी भांति रोटी आ जाए,
देखे रस्ते या अनजाने,
रोजी रोटी के क्या दाने,
खाने बिन खाने पछताने।
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रोजी रोटी सब मन भाए,
ना खाए तो जी ललचाए,
जो खाए तो जी जल जाए,
छुट्टी करने पर शामत है,
छुट्टी होने पर आफत है,
बिन वेतन ना शराफत है,
यही खुशी भी गम के ताने ,
रोजी रोटी के क्या दाने,
खाने बिन खाने पछताने।
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या दिल्ली हो या कलकत्ता,
सबसे ऊपर मासिक भत्ता,
आंखो पर चश्मा खिलता है,
चालीस में अस्सी दिखता है,
वेतन का बबुआ ये चक्कर ,
पूरा का पूरा घनचक्कर,
कमर टूटी जो चले हिलाने,
रोजी रोटी के क्या दाने,
खाने बिन खाने पछताने।
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रोटी ऐसा दिन दिखलाती,
अनजाने में भी नचवाती,
फटी जेब फिर भी भगवाती,
रोजी के आपा धापी ने,
गुल खिलवाया ऐसा भी कि,
कहने को तो शहर चले थे,
पर साहब जा पहुंचे थाने,
रोजी रोटी के क्या दाने,
खाने बिन खाने पछताने।
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रोजी रोटी के क्या दाने,
खाने बिन खाने पछताने।
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अजय अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार सुरक्षित
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