रे ! मेरे मन-मीत !!
, रे ! मेरे मन-मीत !!
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प्यार से पगली कहूँगा ,
दण्ड जो दोगी सहूँगा ;
किन्तु मन के मीत मेरे-
मौन मैं कैसे — रहूँगा !
जिंदगी हो या बहार हो,
गीत का श्रृंगार—–हो ;
स्वर हो वीणा तार हो-
मैं तुम्हें सुनता रहूँगा !
आइये कुछ बात कर लें,
जिंदगी के लक्ष्य चुन लें ;
भूल कर सब याद कर लें-
भूल पर करता— रहूँगा !
याद रख कर भूल जाऊँ ,
जिंदगी मे॔ तुम को पाऊँ;
तुम यूँ हीं मिलते रहे तो-
जन्म फिर लेता रहूँगा !
क्या पता इस जिंदगी में,
हम मिलेंगे ना मिलेंगे ;
हम मिलें या ना मिलें पर-
स्वप्न में मिलता रहूँगा !
हाँ तुम्हें मैं पा गया हूँ ,
जिंदगी में छा गया हूँ ;
रास्ते सब बन्द हों —पर-
राह पर चलता रहूँगा !
स्वप्न तो बस स्वप्न होते ,
आइये साक्षात मिल लें ;
स्वर्ग से आए न कोई-
मैं स्वयं मिलता रहूँगा!
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C/R स्वरूप दिनकर
आशु – चिंतन
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