रे मेघा तुझको क्या गरज थी
रे मेघा तुझको क्या गरज थी,
पिपासा को तो मैं तड़पती।
मेरी ये अगन, उस पर सूरज की तपन,
इक इक पल ऐसे बीतता
जैसे सालों साल।
बैचेनी को पढ़ने की तुझमें खूब समझ थी।
रे मेघा तुझको क्या गरज थी..
मै तो थी उदास तन्हा सा लिबास
आँचल मेरा सूखा जिस पर नही हरी घांस,
अंदर से मैं रीती, भरने को तरसती ।
खाली पन भरने की तुझमें क्यों तड़प थी।
रे मेघा……….
अबके आया सावन,
भीग चुका है तन मन,
कर दिया सराबोर,
सलिल सलिल चहुं ओर।
करने को तरबतर ऐसी क्या प्रवृत्ति।
रे मेघा……….
रे सुन प्यारी वसुधा,
इक इक आह तुम्हारी,
मुझको देती चोट करारी
तेरा मेरा मेल मिलाप
ये तो कुदरत का है प्रलाप
सुंदर सी इस बसुंधरा पर
स्वर्ग ने पांव बिखेरे हैं
मोहक सी रचना को रचने
आलिंगन है तुझसे करने
कुदरत ने खेल खेले हैं।
प्रकृति के सृजन को मेरी ये अरज़ थी।
रे मेघा तुझको क्या गरज थी,
पिपासा को तो मैं तड़पती।
कुमार दीपक “मणि”
(स्वरचित)