रूढ़ियों को तोड़िए।
यह कविता मैंने सन् 1985 में लिखी थी।
रूढ़ियों को तोड़िए, धर्मांधता को छोड़िए।
और सबको राष्ट्र की धारा में लाकर जोड़िए।।
हैं नहीं केवल अँधेरे, रौशनी भी है यहाँ।
बस जरा अपने ह्रदय की खिड़कियों को खोलिए।।
कहीं बढ़कर ये स्वयं अपना ही मुख न नोंच लें।
हाथ के नाखून को बढ़ने से पहले तोड़िए।।
हिंदू, मुसलमाँ सिक्ख, ईसाई की चर्चा छोड़कर।
सभी का इन्सानियत से आज नाता जोड़िए।।
देश उपवन है यहाँ पर हर तरह के फूल हैं।
कृष्ण सबको एक माला में पिरोकर जोड़िए।
श्रीकृष्ण शुक्ल, मुरादाबाद।।