रूठी नदी
१८)
“ रूठी नदी “
ओ मेरी प्यारी नदी
तू थी मेरी अच्छी सखी
क्यूँ रूठ गई है ?
इतनी दूर चली गई है ?
मिलकर कितना खेला करते थे
पानी से अठखेली करते थे
तेरा संगीत मन को लुभाता था
तेरी कल-कल से दिल हरषाता था
बता ना , क्यों रूठ गई है ?
रे सखी , क्या बताऊँ ?
परेशां हूँ कुछ बोल न पाऊँ
तेरे ही लोगों ने मुझको छला है
जो है अब मुझमें सब सड़ा-गला है दुखती रग को तुमने मेरी छुआ है
क़ुदरत ने पाक दामन दिया था
पर अब मलीन हुआ है
हाल मेरा अब बेहाल है
बची नहीं साँसें, मन में त्रास है
नापाक हाथों ने मुझे सताया है
ज़ख़्मी है सीना मेरा,
पानी ने आग बरसाया है
चाहती हो ग़र मुझे पास बुलाना
प्रदूषण रहित रहूँ करो उपाय नाना
बना दो मुझे फिर से वो पुरानी सखी
न रूठूँगी, न दूर जाऊँगी तुमसे ओ अली
फिर से देश में हरियाली होगी
हर घर में ख़ुशहाली होगी
स्वरचित और मौलिक
उषा गुप्ता, इंदौर