रूठना
जो ज़रा सी बात पर ही, मुँह बनाकर रूठ जाते।
इन प्रतीक्षित पुतलियों की वेदना क्या जान पाते!
जानती हूँ मैं प्रतीक्षा, दिन विरह के काटती है।
प्रेमिकाओं को ये दुनिया, धैर्य से ही जानती है।
किंतु मैं लाऊँ कहाँ से, धैर्य राधा, उर्मिला सा,
मान मैं तो लूँ मगर क्या, आँख भी कुछ मानती है !
आग पर घृत ही न पड़ता, गर तनिक भी मुस्कुराते।
रातरानी तुम बताओ, रूठना क्या ठीक होता ?
बात को कर के बतंगड़, क्या झगड़ना ठीक होता?
ऐसे प्यारी और भोली रातरानी को झटक कर
चंद्रमा का बादलों में, क्या भटकना ठीक होता ?
शाम को घर अपने वापस, सारे बुध्दू लौट आते।
रूठ जाऊँ गर कहीं मैं, तब ठिकाने होश आएं,
ऑफ कर लूँ फोन, उनको दिन में तारे दीख जाएं।
मैं मगर हारी हृदय से, रूठना आया न मुझको।
और वो स्वरहीन मन की वेदना, क्या जान पाएं।
तब समझते छटपटाहट जब कभी मुझको मनाते।
इन प्रतीक्षित पुतलियों की वेदना क्या जान पाते!
© शिवा अवस्थी