रुबाइयाँ
कविता: चलते चलो
तूफ़ानों से खेलेंगे हम, चट्टानों से टकराएँगे।
लाख मुसीबत चाहे आएँ, नहीं तनिक भी घबराएँगे।।
नाव हमारी उस ओर चले, जिधर सुनामी लहरें आएँ;
आज तराजू लेकर हम भी, संकट से ख़ुद को तोलेंगे।।
जो होना है टले नहीं वो, कर्म मग़र करते रहना है।
भाग्य कर्म का अद्भुत अनुपम, बहुत सलौना-सा गहना है।।
आवाज़ उठाओ झुको नहीं, तभी लगेंगे प्राण बदन में;
घड़ा बुराई का रखा गगन, एक दिवस तय है ढ़हना है।।
चला गिरेगा सुधर उठेगा, उसको कौन रोक पायेगा।
निकल तीर सही निशाने पर, हार नहीं जीत दिलाएगा।।
चाह डगर से अगर करेगा, धर्म कीर्ति यश ख़ुशी मिलेगी;
शर्त यही बिछे अँगारों पर, बिना रुके क़दम बढ़ाएगा।।
बंदर घुड़की कष्ट सभी हैं, इन्हें डराओ सीना ताने।
तभी मिलेंगे बहादुरी के, अज़ब ग़ज़ब तुमको नज़राने।।
अलग भीड़ से जो चलता है, गीत उसी के गूँजा करते;
इतिहास बने उनके जिनके, प्रेरित करते हैं अफ़साने।।
भूल फ़र्ज़ को चलनेवाला, सदा स्वयं को ही खोता है।
सूर्य रोशनी देता सबको, तभी स्वयं जग का होता है।।
भ्रम पालकर जीना छोड़़ो, क़ुर्बानी का मतलब जानो;
बीज लुटाता पहले ख़ुद को, तभी वृक्ष छवि संजोता है।।
आर. एस. ‘प्रीतम’