रुढ़ियों का आकाश [सेन्रियू संग्रह की समीक्षा]
“रुढ़ियों का आकाश” प्रदीप जी द्वारा रचित हिन्दी का प्रथम सेनरियू संग्रह
सेनरियूकार : प्रदीप कुमार दाश “दीपक”
समीक्षक : डाॅ. सुधा गुप्ता
प्रकाशन : माण्डवी प्रकाशन प्रकाशन वर्ष : 2003
पुस्तक मूल्य : 35/—– रुपये मात्र
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हाइकु विषयक गम्भीर अध्ययन के अभाव में हाइकु और सेनरियू का अन्तर स्पष्ट नहीं था । अस्तु !
ईस्वी सन् 2003, अगस्त माह में श्री प्रदीप कुमार दाश “दीपक” का सेनरियू संग्रह “रुढ़ियों का आकाश” प्रकाशित हुआ । तरुण हाइकुकार ने अपनी संक्षिप्त भूमिका “स्वकथन” में जो कुछ कहा है, उससे सुस्पष्ट है कि दीपक जी को हाइकु-सेनरियू का वस्तु-बोध सम्बन्धी अन्तर ‘हस्तामलकवत’ है, वह पूर्णतया निभ्रांत हैं, सेनरियू-संग्रह का शीर्षक तथा शीर्षक सेनरियू भी यही उद्घोष करते हैं :
आओ तोड़ने/रूढ़ियों का आकाश/लगा फैलने ।
“दीपक” जी ने ‘स्वकथन’ में एक बिन्दु पर और भी बल दिया है —- “यहाँ एक बात मैं कहना चाहूँगा कि एक अच्छा व्यंग्य जहाँ हृदय को सीधा चोट करता है, वहाँ उसमें पीड़ा व करुणा के भाव भी सन्निहित रहते हैं । इस तरह देखा जाए तो एक अच्छा सेनरियूकार केवल हास्य-व्यंग्य से ही सेनरियू नहीं लिखता, अपितु वह पीड़ा-बोध अथवा करुणता-भाव से भी सेनरियू रच सकता है ।”
“दीपक” जी के सेनरियू-संग्रह में व्यंग्य के तीखे प्रहार हैं :
हा.. गणतंत्र / रोता रहा है गण / हँसता तंत्र ।
लाश ही लाश/मरी आदमीयत/आदमी ज़िन्दा ।
कुत्ते ने भौंका/सिखा दिया भौंकना/आदमी को भी ।
कानूनी घोड़ा/जिधर फेंको पैसा/उधर दौड़ा ।
देश की राजधानी में दिन-प्रतिदिन बढ़ते अनाचार से क्षुब्ध हृदय का तीखा व्यग्य :
दिल्ली को हम/मानते दिल, पर/साँपों का बिल ।
दिल्ली में चैन/संविधान खामोश/लोग बेचैन ।
महँगाई की मार से अल्प आय वर्ग का बुरा हाल करुणा उपजाता है :
जेब है खाली/राशन की तारीख़/आयी दिवाली ।
सब के गाल / मँहगाई की मार / हो गये लाल ।
राजनीति के दूषित वातावरण तथा देश के नेताओं के ‘गिरगिट चरित्र’ ने सेनरियूकार को बहुत पीड़ा पहुँचाई है :
नेता से सीखा/थूक कर चाटना/ये भी है कला ।
नेता रावण / लोकतंत्र सीता का / किया हरण ।
संसद के अजीबोग़रीब हालात देख-सुन कर सेनरियूकार कह उठता है :
उछल रहे / सड़क से संसद / भालू-बंदर ।
तथा —-
ख़ूनी सड़कें/धृतराष्ट्र कानून/सज़ा दे किसे ।
साम्प्रदायिकता एवं जातिवाद के कारण समाज लहूलुहान है । “धर्म” की भूमिका पर प्रश्नचिह्न लगा है :
बने ज़ालिम / भाइयों को लड़ाने / राम-रहीम ।
आजादी के छप्पन वर्ष बाद भी सर्वहारा वर्ग की क्या दुरावस्था है, यह किसी से छिपा नहीं । स्कूल जाने, पढ़ने और जीवन का निर्माण करने वाली उम्र में शैशव का संताप जिन्हें झेलना पड़ रहा है, कोई उनकी करुण गाथा नहीं बाँचता :
देश के बच्चे/कचरों के ढेर पे/भविष्य ढूँढे ।
इस सेनरियू – संग्रह में एक सौ बारह सेनरियू हैं । सभी सशक्त, प्रभावशाली एवं अपने उद्देश्य में सफल हैं ।
[“पानी माँगता देश” से साभार]
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– समीक्षक : डाॅ. सुधा गुप्ता
“काकली” 120 बी/2 , साकेत
मेरठ – 250003 (उ.प्र.)