रुक्मिणी संदेश
विदर्भ देश जहँ भीष्मक नरेश।
तहाँ रुक्मिणी थी सुता भेष।।
स्वरूपवती सुभग सयानी।
सर्वगुणी सों सब विधि जानी।।
सुनि कृष्ण रूप लीला ललामा।
भजति हृदय महँ आठों यामा ।।
प्रेम प्रगाढ़ हिय अति जागा।
निज अनुरूप श्याम बरु मागा।।
तात मात करि हिय अभिलाषा।
तनया को ब्याहे जगदीशा।।
रुक्मि भ्रात कै कृष्ण न भाए।
कहि शिशुपाल नीक वर आए।।
वीव्हल मनु रुक्मिणी बिसूरति।
हिय महँ राखी स्यामल मूरति।।
राचिं प्रेम पाती हरि ताईं।
ब्राह्मण हाथ संदेस पठाई।।
हे अच्युत मम उर अनुरागा।
मधुसूदन चित्त तोसे लागा।।
तोहे तन मन अर्पण किन्ही।
सुध बुध मोर तूने हर लिन्ही।।
मैं नृप सुता कुलवती किसोरी।
बाँह गहो अब माधव मोरी।।
शिशुपाल नहि मेरो भरतारा।
सिंह भाग नहि खाए सियारा।।
यज्ञ दान प्रभु पूजन साचा।
हुईं प्रसन देऊ बर मन राचा।।
गहुँ चरन करहुँ बरन बिहारी।
रिपु सन रक्षा करो मुरारी।।
गुप्त वेष धरु मोहन आवो।
सूर बीर संग लशकर लावो।।
जौं लगि देवी दर्शन करहीं।
करि अरि मथन मोहि अपहरहीं।।
तात चरण रज माथे सोभा।
मिल्हिं न होय बहुरि मनु छोभा।।
बिनती बहुरि करूँ कर जोरी।
आसिरबादु पग धूरी तोरी।।
जो न होइ कृपा सोइ जाना।
करि ध्यान व्रत मैं तजहुँ प्राना।।
बारम्बार निज तन त्यागहुँ साँईं।
तजब सत जनम तब तों रिझाईं।।