रिश्तों की हरियाली
रिश्तों की हरियाली
आज धरा पर दफन सी हो गई चाहतें,
पग- पग पर यहाँ बिक रही मुहब्बतें।
रिश्तों की मज़बूत डोर को यहाँ पर,
पल भर में भस्म कर रही नफरतें।
कर रहा इंसान धरा पर, आज करतूतें काली।
कलयुगी कहर सुखा रहा, रिश्तों की हरियाली।
खून से मानव बुझा रहा प्यास यहाँ,
आ रही रिश्तों में बहुत खटास यहाँ।
बेवाफाई का बिछ गया जाल सा,
वफा किसी को आती नहीं रास यहाँ।
चलती है लू यहाँ, हिलती जब डाली- डाली।
कलयुगी कहर सुखा रहा, रिश्तों की हरियाली।
सत्य युग वाली बात अब तो बीत गई,
होती थी एक- दूजे के लिए वो प्रीत गई।
अकेले- अकेले खाने में आता है ज़ौक अब,
मिल- बांटकर खाने की अब तो रीत गई।
चतुर इंसान आज, बजाता एक हाथ से ताली।
कलयुगी कहर सुखा रहा, रिश्तों की हरियाली।।
हुआ करता था जो मन भावन,
करता था जो रिश्तों को पावन।
भर जाता जो हरियाली रिश्तों में,
काश लौट कर आता वो सावन।
निभाकर रिश्तों को आए, जिन्दगी में खुशहाली।
कलयुगी कहर सुखा रहा, रिश्तों की हरियाली।।
सुशील भारती, नित्थर, कुल्लू (हि.प्र.)