रिश्तों की बदलती परिभाषा
धीरे धीरे कर से इस जहाँ में
हर रिश्ता बदलने लगा है
कल तक जहाँ जरें- जरें में प्यार था
आज वह हर जगह कड़वाहट ने ले लिया है ।
पिछले रिश्ते को याद कर
सबके आँखों में आँसू छलक आते हैं
पर रिश्तों को सुधारने की कोशिश
कहाँ कोई एक शक्स भी कर रहा है
कुछ दिन पहले तक जो घर
का सारथी हुआ करता था
आज वह शक्स घर के हर सदस्य के
आरोप तले मरता जा रहा है
आपने क्या किया इन सवालों से
घिरता हुआ नजर आ रहा है।
कल तक घर का मुखिया बनकर
अपने पर गर्व महसूस कर रहा था
आज अपने घर की सच्चाई देखकर
वह ठगा हुआ खड़ा एक कोने
आँसू बहा रहा है।
आज न मां, न पिता ,न भाई, न बहन
हर रिश्ता में इंसान अपना
सिर्फ मतलब ढूँढ रहा है
रिश्ता तो सब ऐसे तोड़ रहा है
जैसे कोई कपड़ा बदल रहा है।
बातें बहुत हो रही है रिश्तों की आजकल
पर रिश्तों में मिठास रह कहाँ गया है
हर इंसान खट्टास भरे दिल में
एक दूसरे पर आरोप लगा रहा है।
हर घड़ी, हर समय खुद को
सही साबित करने में लगा है।
कल तक जो रिश्ता प्यार के कारण
हँसी-खुशी फल -फूल रहा था
आज क्रोध की आग में धू -धू कर जल रहा है
एक-दूसरे से ऊपर उठने की होड़ में
आज अपने ही अपनों को नीचे गिरा रहा है।
अब रिश्तों में अपनत्व का भाव
दिख कहाँ कही रहा है।
ऐसा लग रहा है की हर रिश्ता
खंजर लिये हुए एक दूसरे
को लहूलुहान करने में लगा है।
हर रिश्ता आज जख्मी दिख रहा है।
ऐसा लग रहा है की रिश्तों की परिभाषा
एकबार फिर से बदल गया है
हम दो हमारे दो से आकर
सिर्फ हम पर टिक गया है।
ऐसे में अब कहाँ कोई रिश्ता बच गया है।
~अनामिका