रिश्तों का मोल
बंधन रिश्तों के इस जग में
क्यों कच्चे पड़ने लगे हैं यारो।
टूट रहे हैं परिवार यहां पर
क्यों सांझे चूल्हे घटने लगे हैं यारो।
बिन पैसों के कद्र नहीं होती
क्यों स्वार्थ कुंडली मारे है यारो।
आपाधापी में लगे हुए हैं सब
क्यों बेसब्री का चोला धारे हैं यारो।
बिन रिश्तों के नीरस यह जीवन
क्यों समझ नहीं यह आता यारो।
‘दुर्गेश’ तुम्हें हरपल समझाए
क्यों रिश्तों का मोल समझ न आता यारो।