रिश्तों का मेला
रिश्तों का मेला
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ये दुनियाँ
रिश्तों का मेला है,
इन रिश्तों में भी
खूब झमेला है।
बनते बिगड़ते रिश्तों में
फूल भी हैं तो काँटे भी हैं,
रिश्ते कभी अच्छे लगते हैं
तो कभी पीड़ा भी देते हैं।
रिश्तों की भीड़ में सब उलझे हैं
कई खराब ,तो बहुत से सुलझे हैं,
कुछ तो परेशान है यहाँ
तो कुछ मजे कर रहे हैं।
हर कोई रिश्तों की भीड़ में
उलझा हुआ है,
शायद इसी रिश्तों की भीड़ के दम पर
रिश्तों में उलझा है,तभी जी रहा है।
?सुधीर श्रीवास्तव