रिश्तों का ताना बाना
कैसे हैं ये दुनिया में रिश्ते ,
कैसा इन रिश्तों का ताना-बाना ।
किसी में निश्छल ,निस्वार्थ प्रेम
किसी में बस मतलब का याराना ।
कहीं अजनबी भी अपने से ,
कहीं अपनों का अजनबी बन जाना।
मरहम लगाये कोई जख्मों पर ,
किसी को आता है बस ज़ख्म देना ।
जीवन के सफ़र में जुड़ते है रिश्ते ऐसे ,
रेलगाड़ी में जैसे मुसाफिरों का मिल जाना।
भिन्न भिन्न प्रकृति के लोग मिलते है ,
और सभी के साथ सामंजस्य बिठाना।
सीखता है इंसान इसी तरह से ,
जीवन में सभी से रिश्ते निभाना ।
साथ सफ़र करते हैं सहयात्री ,
परंतु इन्होंने एकदूजे को पहचाना ?
क्षणिक भेंट से बाह्य रूप तो जाना ,
परंतु अंतर्मन को किसने जाना?
जीवन के सफर में भी ऐसा होता है ,
घनिष्ठ संबंध भी दिखता अंजाना ।
अपने होकर भी जो गैरों सा बर्ताव करें,
तो संभव है उनसे मन को संतप्त होना ।
हमें अपना करीबी कहने वाले लोग ,
नहीं समझ पाते हमारी अभिव्यंजना ।
और कोई गैर होकर भी पढ़ लेते है ,
हमारे दुखी मन की मौन संवेदना ।
हम इस सच्चाई की कैसे करें पड़ताल ,
वो समझ नही पाते या चाहते नहीं समझना ।
हमें कुछ समझदार लोग समझते है ,
रिश्तों में लाभ हानि का क्या सोचना ?
रिश्ते तो रिश्ते है हंसकर या रोकर ,
चाहे जैसे भी हो हमें तो है बस निभाना ।
और हम सोचते है आखिर ये विवशता क्यों?
क्या ये आवश्यक है अनिच्छा से रिश्ते निभाना ।
काश ! मानवों को ये स्वतंत्रता होती ,
तोड़ सकते सामाजिक रिश्तों का झूठा ,
ताना बाना ।