रिश्ते
जीवनदान भी देकर कोई
स्नेह-सुधा ना पाता है
यह धरणी है कलियुग की
रिश्तों का भ्रम छल जाता है।
इसमें नही विशेष है कुछ भी
चिंतन और मनन को आज
नैतिकता को मौत आ गयी
ईश्वर को भी आती लाज।
हाय जगत का रूप यह कैसा
रिश्तों का यह कैसा दंश
सब के सब रिश्ते जहरीले
संस्कार कहाँ और कैसा वंश!
–अनिल कुमार मिश्र