रिश्ते
कुछ रिश्ते ज़िंदगी होते हैं
दौड़ते भागते हैं ज़िंदगी बन कर
साँस बनकर बदन में कभी
तो कभी दौड़ते हैं रगों में लहू बनकर
जी चाहता है
इन्हें चुरा लूँ,
और ज़िंदगी चलती रहे यूँ ही…
कुछ रिश्ते चाँद होते हैं,
कभी अमावस तो कभी पूर्णिमा के जैसे
कभी अँधेरे तो कभी उजाले
जी चाहता है
बाँध लूँ इनकी रोशनी को अपने पल्लू से,
और चाँद को दीवार पर टाँग दूँ
कभी अमावस नहीं…
कुछ रिश्ते बेशकिमती होते हैं
जौहरी बाज़ार के शो केसों में सजे हुए
कुछ अनमोल, कुछ बेशक़ीमती,
जिन्हें खरीदा नहीं जा सकता
जी चाहता है
इन पर इनका मोल चिपका दूँ
ताकि देखने वाले रशक कर उठें
कुछ रिश्ते खूबसूरत होते हैं
इतने कि खुद की भी नज़र लग जाती है
जी चाहता है
इनको काला टीका लगा दूँ
लाल मिर्च से नज़र उतार दूँ
बुरी नज़र… जाने कब… किसकी..