रिश्ता
वो कहते है अटूट है रिश्ता
ज़िन्दगी का दस्तूर है रिश्ता
लाखों बंधे हैं इसमें इस कदर
औरत का सिन्दूर है रिश्ता ।।
लाखों देखें है ज़माने में
मिट्टी का कारतुस है रिश्ता
रोज बंधते बिखरते रहते है
जैसे दोपहर का धूप है रिश्ता।।
हमने एक दूसरे को तरसते देखा
किसी एक की फिकर में
दुसरे को हमने मरते देखा
किसको यहां कबूल है रिश्ता।।
अपने से पराए को
ज़िन्दगी से मौत को
सगे से सौत को
“प्रभात ” समरूप है रिश्ता
स्वरचित कविता:-सुशील कुमार सिंह “प्रभात”