“रिवाज़ बदलते देखा है”
“वक़्त बदलते देखा,तख़्तों-ताज बदलते देखा है,
सियासत की गद्दी पर शाहों के राज बदलते देखा है,
हर मुल्क में जनता की आवाज़ बदलते देखा है,
अंजाम से नाख़ुश थे उनको आगाज़ बदलते देखा है,
वक्त नहीं कुछ कहता फिर भी सब कुछ समझाता है,
बिन पाँवों के वर्षों की दूरी तय कर जाता है,
वक़्त का पहिया घूमता है,और दूर निकल जाता है,
बीतता हुआ हर इक पल हमको कुछ सिखलाता है ,
दौलत वालों को भी हमने तिल तिल कर मरते देखा है,
झोपड़ियों की क्या बात करें,महलों को जलते देखा है,
जिस लाश पे आसूं बहा रहे थे सब,उठ गयी तो डरते देखा है,
बादल में जब चांद छिपा,अँधेरे से दीपक को लड़ते देखा है,
अच्छे वक़्त का आलम था गैर हमे अपनाते थे,
बुरे दौर में अपनों से रिश्तों को बिगड़ते देखा है,
भाई को अपने भाई से कई बार झगड़ते देखा है,
बंजर धरती पर हमने फ़सल उगाते देखा है,
फूलों की चिताओं पर कलियों को मुरझाते देखा है,
ठोकरों से राहों पर चलने का सलीका सीखा है,
गलती के तज़ुर्बो से लोगो को सुधरते देखा है,
गाँव बदलते देखा है,शहर बदलते देखा है,
चंदा के सुंदर मुख को हर पहर बदलते देखा है,
काँटों को फूलों के दामन में पलते देखा है,
ढलते सूरज के संग दिन को ढलते देखा है,
तपिशे गुल से हमने पत्थर को पिघलते देखा है,
परिवर्तन की आंधी में अंदाज़ बदलते देखा है,
इक पल में मौसम का हमने मिज़ाज बदलते देखा है,
हमने तो चमकती धूप में भी सायों को सिमटते देखा है,
वक़्त ज़रा-सा बदला तो अल्फाज़ बदलते देखा है,
वक़्त बदलते देखा तख़्तों-ताज बदलते देखा है “