*रिझाया तो बहुत*
रिझाया तो बहुत मग़र ,नहीं पयामों के पाबन्द निकले।
बाँहें उठा के दिखाया तो बहुत ,मग़र नहीं पसन्द निकले।।
मेरी फुंगाँ को कभी सुना तुमने,यार किस तरह सहा है
हम हक़ीकत में रहे नासमझ, हाँ तुम अकलमन्द निकले।।
तुम्हारी हर गुप्तगू से निकलता है,सियासतों का जायजा
सांप आस्तीनों में छिपे सुने थे,आप हैं भुजबन्द निकले।।
मुहं से खौप रिसता है हर बात में,हरेक लम्हा देखिये
सदायें हो चुकी हैं ज़हरमयी अब ,हैं ये हरफन्द निकले।।
बिसवास में खा ली अफ़ीम ,सब हरा ही दिख रहा था
अब चीखते हो चारों पहर क्यों , दिमाग़ के बन्द निकले।।
हो गए सब्ज बाग ही सब ‘साहब’ख़ाक मिलना नहीं है
फ़क़ीर समझा हमें वो तो ठीक है, पर तुम रिन्द निकले।।