“राहे-मुहब्बत” ग़ज़ल
दिल से यादों को मिरी, जड़ से मिटाने वाले,
लौट कर के, कहाँ, आते हैं, यूं, जाने वाले।
उफ़, वो पहली नज़र मेँ, क़त्ल जो हुआ मेरा,
अब न क़िस्से हैं वो, ना उनको सुनाने वाले।
बसी है अब भी वो मासूम सी, सूरत दिल मेँ,
थक चुके, राहे-मुहब्बत से, डिगाने वाले।
कैसे बतलाऊं, किस तरह से था आग़ाज़ हुआ,
अब हैं मिलते भी कहाँ, दिल को चुराने वाले।
कहाँ है साज़-ओ-सामाँ, जो दे सुकूँ मुझको,
कहाँ हैं, मीर की, ग़ज़लोँ के वो, गाने वाले।
गए कहाँ वो, जिनकी बात मेँ गहराई थी,
राज़ ताउम्र, अपने दिल मेँ, छिपाने वाले।
कुछ तो अख़लाक़, ख़ुदाया, उन्हें भी फ़रमाए,
वादा-ए-वस्ल को, पल भर मेँ भुलाने वाले।
अब नज़र आएँ, तो सीने से लगा लूँ उनको,
मर के भी, इश्क़ का, दस्तूर निभाने वाले।
कुछ तो बदला है, ज़माना भी यूँ बेशक “आशा”,
अब हैं दिखते कहाँ, आशिक़ वो, पुराने वाले..!