मदमस्त पवन।
मदमस्त पवन।
खुशबू है साँसों में तेरी
कानन, उपवन करते फेरी,
किन फूलों से गंध चुराकर
मुकुलित कलियों से टकराकर।
मेरे आज भवन,
मदमस्त पवन।
किन देशों से होकर आये
राहों में क्या ठोकर खाये?
पर्वत, सरिता, रेतों में भी
बहे घने वन, खेतों में भी।
लाये काले घन,
मदमस्त पवन।
जीवन क्या चलते रहना है
हरदम यूँ बहते रहना है?
पर्वत से टकराना होगा
खुद का पंथ बनाना होगा।
तम भी बहुत सघन,
मदमस्त पवन।
कभी सर्द तो कभी गरम भी
आँधी हो तो कभी नरम भी,
समय, देश जैसे ढल जाना
जीने का यह मर्म बताना।
पथ में बहुत अगन,
मदमस्त पवन।
अनिल कुमार मिश्र।