यह सागर कितना प्यासा है।
जिसको जितना मिलता रत्न
और अधिक का करता यत्न,
अगणित नद पीकर सागर की
बुझती नहीं पिपासा है।
यह सागर कितना प्यासा है।
मिला न जग को अबतक तोष
विभव, रत्न हो या मणिकोष,
बाहर की सुषमा अनन्त पर
अंदर अमित हताशा है।
यह सागर कितना प्यासा है।
शमित न होता उर का ज्वार
अंतर्मन में तृषा अपार,
उड़ने को ले पंख गगन में
खड़ी सदा अभिलाषा है।
यह सागर कितना प्यासा है।
अनिल मिश्र प्रहरी।