राष्ट्र सेवा के मौनव्रती श्री सुरेश राम भाई
राष्ट्र सेवा के मौनव्रती श्री सुरेश राम भाई { जन्म तिथि 10 मार्च 1922 – मृत्यु तिथि 6 जनवरी 2002 }
【 साक्षात्कार पर आधारित लेख 】
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लेखक : रवि प्रकाश, बाजार सर्राफा ,रामपुर (उत्तर प्रदेश) मोबाइल 99976 15451
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श्री सुरेश राम भाई त्याग और तपस्या की प्रतिमूर्ति हैं । वह राष्ट्र सेवा के आजीवन मौन व्रती हैं। भारतीय राष्ट्र के निर्माण में जिन्होंने बुनियाद के पत्थरों की तरह अपने को खपाया है, सुरेश राम भाई उस कोटि के रचनाधर्मी व्यक्तित्व हैं। वह शिखर पर चमकते उन कलशों में से नहीं हैं, जिन्होंने सत्ता की राजनीति की और लड़-भिड़कर बड़ी-बडी कुर्सियाँ पायीं। वह तो उन साधकों में हैं जिन्होंने भारत माता के मन्दिर की एक-एक ईंट अपने समर्पित कन्धों पर ढोई और गर्भगृह में देवता को प्रतिष्ठित करने के बाद चुपचाप खो गए। आजादी मिली और देश की सारी कुर्बानियाँ अपनी कीमत कुर्सियों में बदलने में लग गयीं। सुरेश राम भाई आजादी के बाद एक बार फिर कुर्बानी के रास्ते पर निकल पड़े। जिन सत्ता के महलों की बुर्जियों से उनके बहुतेरे संगी-साथी लटके हुए थे, वह अपना मन उनमें नहीं अटका सके। आजादी से पहले वह जेल गए, स्वतंत्रता की खातिर। आजादी के बाद विनोबा जी से जुड़े।
भाई जी में रचनात्मक वृत्ति कूट-कूट कर भरी है। वह हमारे राष्ट्र जीवन के उन अपवाद-स्वरूप रचनाधर्मी कार्यकर्ताओं में हैं, जिन्होंने अपना सारा जीवन देश के निर्माण की सकारात्मक प्रक्रिया में लगा दिया। भाई जी के यौवन का सपना देश की आजादी था और साथ ही था समाज का समतापरक मूल्य के आधार पर निर्माण ।
न जाने किस धातु का बना है उनका व्यक्तित्व कि त्याग करने और केवल त्याग करने के सिवाय उन्होंने और कुछ किया ही नहीं। त्याग का एक फल मिलता है। सुरेश राम भाई ने मानो उस फल का भी परित्याग कर दिया है।
किताबों में, और अन्य रिकार्ड में जो लिखा मिलता है उसके अनुसार आने वाली दस मार्च को वह सढ़सठ वर्ष के हो जायेंगे। “मगर मेरी जन्म तिथि दस मार्च 1922 नहीं है। वह 1921 ही है। दरअसल उस समय यह प्रवृत्ति प्रायः रहती थी कि उम्र कुछ बढ़ाकर लिखाई जाती थी।” -भाई जी ने इन पंक्तियों के लेखक को बताया था।
सुरेश राम भाई खादी पहनते हैं। सूत कातना उनका नित्य नियम है। मैंने देखा था, छोटा-सा चरखा था। लकड़ी का एक छोटा सा-बहुत छोटा सा डिब्बा है वह। सूत कातना मन की एकाग्रता को जन्म देता है -यह बात मैं उस समय ही जान-समझ पाया, जब मैंने देखा कि भाई जी सूत भी कातते जा रहे हैं और मुझसे बात भी कर रहे हैं। क्या मजाल कि सूत टूट जाए। जो बनियान वह पहनते हैं उन्हों के हाथ के काते सूत की है। खादी उन्हें आत्मनिर्भरता और स्वदेशी की भावना सिखाती है।
पर पिता ने यह सपना नहीं देखा था कि बेटा खादी पहने, हाथ में तिरंगा उठाए, जेल जाए , गाँधी और विनोबा के साथ लग जाए। पिता का सपना था कि बेटा आई० सी० एस० परीक्षा में बैठे। पर, सपने में बहुत दूरी थी युवा सुरेश के और उनके पिता के । पिता यह सहज अपेक्षा करते थे कि उनका बेटा इलाहबाद विश्वविद्यालय से एम० एस-सी० प्रथम श्रेणी में स्वर्ण पदक प्राप्त करके इन्डियन सिविल सर्विस में प्रविष्ट हो और भारत के भाग्य-विधाताओं की पंक्ति में खड़ा हो । यह वही सपना था, जो 1941 में कोई भी महत्वाकांक्षी पिता अपने पुत्र के उज्ज्वल भविष्य की कामना से ओतप्रोत होकर सहज ही कर सकता था। सुरेश राम भाई चाहते, तो अंग्रेज सरकार के नौकरशाहों की प्रथम पंक्ति में खड़े हो सकते थे और उस सुख-सुविधा और भौतिक सम्मान को हासिल कर सकते थे जिसे पाने को उच्च और मध्य वर्ग का हिन्दुस्तानी समाज ललचाई नज़रों से लालयित रहता था। पर भाई जी को तो आध्यात्मिक विश्व से जुडना था। उन्हें वह स्थान पाना था, जो नियति ने उनके सम्मान में सुरक्षित कर दिया था। वह भारत माता के आत्म सम्मान से जुड़े, माँ-भारती की पुकार से जुड़े, युग की ललकार से जुड़े। वह एक ऐसी चेतना से जुड़े जो विश्व के सब राष्ट्रों की और सामूहिक रूप से समस्त मानव जाति की सार्वभौमिक जागृति के आहवान में बदल गयी थी। वह भारत की स्वतंत्रता के लक्ष्य से सीधे तौर पर जुड़ गए। यह एक असाधारण तप था। 1941 में जेल यात्रा ने पहली बार सुरेश राम भाई को भारत के राष्ट्र-नायकत्व की उस पंक्ति में सुस्थापित किया जिसे सहस्त्रों आई० सी० एस० मिल कर भी पाने में असमर्थ थे। फिर तो, आजादी का जोश ऐसा चढा कि 1942 में पुनः भाई जी जेल गये। करीब सवा साल और छह महाने की इन दोनों कारावासों की अवधि रही। भाई जी पूरे तौर पर अब स्वतंत्रता के लक्ष्य को समर्पित थे। पढ़ाई में बेहद होशियार और कुशाग्र बुद्धि सम्पन्न युवक जब अपनी तरुणाई को राष्ट्र-निर्माण के लिए समर्पित करता है ,तब देश का भविष्य बनता है। एक एम० एस-सी० गोल्ड-मेडलिस्ट तरुण भौतिक चकाचौंध से नहीं जुडा, वह जेल की ओर मुड़ा, आजादी के तप से जुड़ा -राष्ट्रनिर्माण की प्रक्रिया यह थी। राष्ट्र-सेवा त्याग चाहती है। त्याग की अटूट और एकनिष्ठ भावना ही राष्ट्र के लिए सर्वस्व अर्पण करने का बुद्धि-बल और सामर्थ्य दे सकती है। सुरेश राम भाई में वह सब कुछ था। उन्होंने अपना सर्वस्व राष्ट्र को दे दिया। अपनी विद्या, अपनी बुद्धि, अपना श्रम, अपनी पढ़ाई-अपना यौवन । उनका सब कुछ राष्ट्र के लिए थे। राष्ट्र तब उनके लिए एकमेव आराध्य था।
आज यह समझना कठिन होगा कि सुरेश राम भाई राष्ट्र के लिए स्वयं को समर्पित करने को अपनी उत्कट इच्छा को किस मुश्किल से 1939 से 1941 तक की दो वर्षों की अवधि तक रोके रख सके होंगे। 1939 में उन्होंने गाँधी जी को पत्र लिखा था कि बापू ! मैं सत्याग्रह में भाग लेना चाहता हूँ। भाई जी ने तब एम. एस-सी. नहीं की थी। बापू का उत्तर आया। पोस्टकार्ड मिला था । पहले अपनी पढ़़ाई पूरी करो। सचमुच एम०एस-सी० करना गांधीजी का आदेश बन गया था। भाई जी ने पढ़़ाई पूरी की। पढ़ाई करते रहे, मगर कोर्स से हट कर भी अपार अध्ययन किया। जेल में रहकर तो उनका अध्ययन एक विराट ज्ञान-साधना की समस्त ऊँचाईयों का अतिक्रमण ही कर गया, जिसका लाभ उन्हें आगे चलकर कई पुस्तकें लिखने में मिला ।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में 1937 में उन्होंने प्रवेश लिया था । तब से आज तक इलाहाबाद उनकी मुख्य कर्मभूमि रहा है। इलाहाबाद से जो वह एक बार जुड़े, तो वह जुड़ाव कभी टूटा नहीं। इसी नगर में उनके संगीसाथी हैं, विश्वविद्यालय के साथी हैं, रचनाधर्म के सहयात्री हैं। यहीं से वह पहली बार आजादी की खातिर जेल गये। यहीं से उनका व्यक्तित्व पला, पनपा और निखरा । स्वतंत्रता का विराट अर्थ जो प्रयाग में उन्हें मिला, उसने उनके जीवन की धारा ही बदल दी।
यूँ तो 1935 से 1937 तक चंदौसी में रहकर इन्टर की पढ़ाई करते हुए भी भाई जी राष्ट्रीय जागरण से पूरी चेतना से जुड़े रहे। महात्मा गांधी द्वारा संपादित हरिजन साप्ताहिक वह वहाँ हमेशा पढ़ते रहे। युग-चेतना से वह जुड़े थे और राष्ट्रीय-सामाजिक सरोकारों से जुड़ना अपना धर्म मानते थे। 1935 में हाई स्कूल करने तक ही भाई जी स्थाई तौर पर अपनी अन्मभूमि रामपुर रह पाए । उनकी उम्र 15 वर्ष से कम ही थी-करीब 14 वर्ष की ही रही होगी । फिर भी रामपुर के सामाजिक-साहित्यिक मंच “हिन्दू प्रामिसिंग क्लब” में उनका रूझान रहता था। इस संस्था की बैठकों में, व्याख्यानों में और लिखने-पढ़ने की गतिविधियों में वह अपनी आयु की अपेक्षा से कहीं अधिक बढ़-चढकर रूचि लेते थे। उनके मन में दो प्रश्न सदा रहे:- हमारे देश में इतनी विषमता क्यों है ? भारत माता गुलाम क्यों है ? पत्रिकायें जो भी उस समय रामपुर में उपलब्ध हो पाती थीं-पढकर और भाषण सुन कर वह प्रायः अपनी मानसिक क्षुधा को शांत करने का प्रयास करते। पर, जैसे आग में घी पड़कर आग बढती है, वैसी ही उनकी अग्नि थी, जो देश की चुनौतियों का विचार-मंथन कर सदा बढ़ती रही। उनका विद्यार्थी जीवन काफी हद तक एक ऐसे युवक का जीवन रहा है जो यूं तो निष्ठा पूर्वक पढ़ाई करता हुआ परीक्षाओं में सर्वोच्च स्थान पाता रहा है, तो भी जिसके अन्तर्मन में एक तूफान सदा उमड़ता रहा। एक गुत्थी रही, जिसमें विद्यार्थी सुरेश राम भाई सदा उलझे रहे। इसी अन्तर्मन के द्वन्द्व ने उन्हें गांधी जी का मार्गदर्शन पाने के लिए पत्र लिखाया। इसी बेचैनी ने उन्हें सत्याग्रह की ओर कदम उठाने को 1937 में ही प्ररित किया, यद्यपि गांधी जी के निर्देश पर उन्होंने बाद में अपना विचार दो वर्षों के लिए स्थगित कर दिया।
सुरेश राम भाई दरअसल एक पूरे युग का प्रतिनिधित्व करते हैं। वह युग जो तप का युग रहा था। जब हमारी राष्ट्रीय सामाजिक चेतना के विविध स्तरों पर एक ऐसा ज्योति पुंज उभरा था, जो आज कहीं नहीं दीखता। जब हम भाई जी को देखते हैं, तो दरअसल यह एक ऐसी तलाश की छटपटाहट है जो हमें आज” में नहीं दीखती । हम ‘कल’ में उसे पाना चाहते हैं। वह तपोनिष्ठ राजनीति थी। और क्या सचमुच राजनीति थी भी कि नहीं जो भाई जी ने 1939 के बाद में सार्वजनिक जीवन में की ? भाई जी कुसियों से दूर ही रहे । 1947 के बाद भी। और, एक हवा चली जैसा कि हम जानते हैं कि कुर्बानियों के बड़े-बड़े स्तम्भ भी 1947 के बाद सत्ता की बाढ़ में बहे। यह फर्क था मूल्यों का । सुरेश राम भाई के मूल्य उन्हें सत्ता से सरोकार स्थापित करने की अनुमति नहीं देते। गाँधी जी शायद फरवरी 1948 को एक मीटिंग बुलाकर कांग्रेस को भंग करना चाहते थे । वह “लोकसेवक संघ” बनाने की सोच रहे थे। आजादी मिल गई ,अब कांग्रेस की कोई आवश्यकता नहीं रही-गांधी जी की विचार-सारिणी यह थी। सुरेश राम भाई 1945 में ही कांग्रेस की सक्रियता से हट चुके थे। गांधी जी के रचनात्मक कार्यक्रमों में ही स्वयं को समर्पित करने का निश्चय ले चुके थे। वह 1947 में ही समझ चुके थे कि आजादी अब दूर नहीं है तथा नया दौर ठोस रचनात्मक आधार पर भारत के नवनिर्माण का है। सो, वह उस नवनिर्माण की भूमिका तैयार करने और गाँधी जी के मार्गदर्शन में सेवाग्राम में और दूसरों जगह पर शिविरों तथा अन्य कार्यक्रमों के माध्यम से उस रचनाधर्मिता से जुड़ कर राष्ट्र-सेवा के व्रत को अंगीकार करना निश्चित कर चुके थे ।
सत्ता से अलिप्तता सुरेश राम भाई के व्यक्तित्व और कृतित्व को असाधारण आकर्षण प्रदान करती है। उनमें तेज है, ओज है। वह तप की सिद्धि से मंडित लोकनायकत्व की स्थिति में हैं। उनके पास आक्रोश हैं ,क्षोभ है और पीड़ा् भी। वह कहते हैं:- “हमारे राष्ट्र के महापुरुषों ने इस देश को सिवाय सत्ता-लोभ की वृत्ति प्रदान करने के और कुछ नहीं दिया। जवाहर लाल नेहरू अगर पांच साल सत्ता में रहकर फिर राजसत्ता को ठुकराकर तपस्या के क्षेत्र में पुनः प्रविष्ट होते तो भारत का इतिहास कुछ और बनता। पर, हमने मूल्य इस देश को ऐसे दिए कि आदमी जब तक जिए, सत्ता की कुर्सी से चिपका रहे । पन्डित गोविन्द बल्लभ पंत आजीवन कुर्सी पर विराजे रहे । राष्ट्रीय महापुरुष कहलाने वाले व्यक्तियों का ऐसा चरित्र किस प्रकार हमारे देश की युवा पीढ़ी को प्रेरणा प्रदान कर सकेगा ?” सुरेश राम भाई की वाणी में जैसे भारत माता की पीड़ा शब्द बन कर फूट रही हो । वह इस राष्ट्र की स्वतंत्रता के अग्रणी तपस्वियों में से एक हैं और रचनात्मक कार्यकर्ताओं की प्रथम पंक्ति के सम्मानित हस्ताक्षर हैं।
मात्र सत्ता के लिए जीते रहने का विचार उन्हें व्यथित करता है । सुरेश राम भाई ने तो गांधी का रचनात्मक पथ अंगीकार किया था। वह विनोबा को एक मशाल मान कर गांधी जी के नहीं रहने पर उनके पीछे-पीछे एक कार्यकर्ता के रूप में चले। भाई जी एक ऐसे कायकर्ता हैं, जिन्हें न तो राजनीतिक नेता बनने का विचार आकृष्ट कर सका और न ही रचनात्मक नेता बनने का विचार पथभ्रष्ट कर सका। वह कार्यकर्ता हैं और केवल कायकर्ता हैं। नेताओं की भीड़ में अकेले कार्यकर्ता हैं और इस नाते वह सहज ही हमें अपनी ओर आकर्षित करते हैं। सर्वोदय और भूदान-आंदोलन को उन्होंने अपने जीवन के सर्वाधिक स्वर्णमय वर्ष समर्पित किए, मगर उसका कोई पुरस्कार अथवा प्रतिफल पाने की लालसा ने उन्हें कभी बेचैन नहीं किया। 1951 में भूदान आंदोलन जब विनोबा जी ने शुरू किया, तो भाई जी ने समग्रता में स्वयं को उस लक्ष्य के लिए समर्पित किया।
जब तक भूदान आंदोलन चला, भाई जी पैदल-पैदल ही उसके लिए घूमते रहे। जैसा कि मैंने इस लेख के शुरू में लिखा कि शिखर पर चमकता कलश सबको दीख जाता है, पर इस राष्ट्र-मंदिर के बुनियादी निर्माताओं में जो मौन सेवाव्रती हैं-हमें वे भी दीखने चाहिए । सुरेश राम भाई ने आर्थिक असमानता को मिटाने के लिए एक लक्ष्य के रूप में भूदान-आंदोलन को स्वीकार करते हुए इस मिशन के लिए अपने जीवन के महानतम वर्ष समर्पित किए हैं । अपनी पुस्तक “विनोबा और उनका मिशन” में उन्होंने भूदान नेता की महान अवधारणाओं को व्यापक रूप से समझाया है। भाई जी गांव-गांव गये। जमीनें मांगीं। उन्होंने लोगों से कहा कि अत्यधिक असमानता अब असहनीय है। आप अपनी जमीनें भूदान-यज्ञ के लिए दीजिए । छठा हिस्सा राष्ट्र के लिए दान करें। स्वेच्छा से इस महान मौन-क्रान्ति की प्रक्रिया में सहभागी बनिए । वरना दो ही विकल्प हैं कि या तो हिंसा होगी जैसा कि नक्सल वादी चाहते हैं अथवा सरकार कानून द्वारा असमानता समाप्त कर देगी। सुरेश राम भाई के त्यागमय व्यक्तित्व ने ,उनकी विशालता ने, उनके व्यवहार और तर्क ने ,उनके समझाने के तरीकों ने जनता पर जादू का असर डाला । विनोबा जी और जयप्रकाश जी के निकट सहयोगी वह रहे हैं। पर, जरूरत पड़े तो जयप्रकाश जी से असहमति प्रकट करने से भी वह हिचकिचाए नहीं हैं। एक बार भरी सभा में ही उन्होंने जय प्रकाश जी से उनके विचारों से असहमति कर दी। जय प्रकाश जी काफी गुस्सा हुए । अगले दिन बाद में कहने लगे कि ठीक है-ठीक है ।
“आपको नहीं लगता कि भूदान आंदोलन असफल हो गया है ?” लेखक ने उनसे पूछा था । वह अस्वीकार नहीं करते कि भूदान अपनी अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरा। “दरअसल सबसे बड़ी गलती यह हुई कि जो जमीन दान में मिली थी ,उसके वितरण का काम ठीक तौर पर नहीं हुआ।”- वह कहते हैं।
तो भी, भूदान-आंदोलन की अपनी ऐतिहासिक भूमिका रही है। सुरेश राम भाई और दूसरे लोगों ने अपनी तपश्चर्या से जनता में यह त्यागमय भावना उत्पन्न करने में सफलता पाई-इस में संदेह नहीं है। उन्होंने जनता में यह विचार काफी गहराई तक पहुँचाने में स्वयं को खपा-सा दिया कि धन-सम्पत्ति समाज की धरोहर है और यह केवल व्यक्तिगत स्वामित्व-भर की चीज नहीं है। दरअसल सुरेश भाई ने जो महत्वपूर्ण विचार हमें प्रदान किया है, वह है व्यक्तिगत सम्पत्ति का समाजीकरण अर्थात मनुष्य की व्यक्तिगत सामर्थ्य का समाजगत उपयोग |
भूदान असफल रहा, पर, इसमें भी सफलता निहित है क्योंकि इसने जो त्याग-भावना प्रत्यक्ष रूप से समाज में प्रकट होती दिखाई, वह इस राष्ट्र-जीवन को अभी लंबे समय तक साधना की दिशा में कार्य क्षेत्र में प्रवृत्त होने का दिशा-बोध करायेगी ।
सुरेश राम भाई की जीवन-साधना अभी अपूर्ण है। उनके सपने अभी भी कोरे पड़े हैं। जैसा समाज-संसार-देश वह सोचते हैं, कहीं नहीं दीखता। मूल्यों का हनन उन्हें व्यथित करता है। सत्ता, सम्पत्ति और सुख की आपाधापी का फैला साम्राज्य उनके मन को कड़वाहट से भर देता है। आजादी उनके निकट अधूरी है। ग्रामोद्योग नही हैं, स्वदेशी की भावना नहीं है, आत्मनिर्भरता नहीं है, मँहगाई बढ़ रही है, रुपये की कीमत घट रही है, बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ घुसपैठ बढ़ा रही हैं, गाँव अत्मनिर्भर न होकर बड़ी कम्पनियों के सहारे खड़ा होने को बाध्य हो रहा है-यह वैसी आजादी नहीं है ,जैसी भाई जी चाहते हैं। भ्रष्टाचार राष्ट्र जीवन के सब अंगों में व्याप्त हो गया है। बिना सादगी का व्रत अपनाए मूल्याधारित समाज रचना का स्वप्न पूर्ण नहीं होगा-वह कहते हैं । पर, कौन किसे मूल्य दे ? आज राजनीति में प्रविष्ट हुए व्यक्ति का दस वर्ष बाद बैंक बैलेंस कहीं से कहीं पहुँच जा रहा है । मूल्यों की प्ररणा के सारे स्त्रोत सूख गये हैं। कोई नेता नहीं दिख रहा जिसका अनुसरण करके कार्यकर्ता बनकर चला जा सके । यह चरित्र का संकट है-भाई जी अत्यधिक संवेदनशील हुए कहते हैं। भाई जी में एक आग है। एक ऐसी ऊष्मा, जो उन्हें चैन से कभी बैठने नहीं देती। उनकी साधना मौन है मगर, उनका अन्तर्मन बहुत मुखर है । उनसे मिलने के बाद दुष्यंत कुमार की यह पंक्तियाँ अत्यन्त सार्थक हो जाती हैं :-
मेरे सीने में नहीं , तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए
【यह लेख सहकारी युग (हिंदी साप्ताहिक) रामपुर (उत्तर प्रदेश) के 26 जनवरी 1989 अंक में प्रकाशित हो चुका है।】
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उपरोक्त लेख के प्रकाशन पर श्री सुरेश राम भाई का प्रतिक्रिया-पत्र निम्नलिखित प्राप्त हुआ:-
सुरेश राम भाई का पत्र
सी, 1/2 मॉडेल टाउन
दिल्ली 110009
16 फरवरी 1989
भैया चिरंजीव रवि बाबू
बहुत धन्यवाद ! कैसे अपनी कृतज्ञता व्यक्त करूं तुम्हारे उस लेख के लिए जो सहकारी युग के गणतंत्र दिवस विशेषांक में तुमने मुझ पर लिखा है। लगभग तीन हफ्ते पहले यह मिला था। उसी समय यह चिट्ठी लिखनी चाहिए थी। मगर तुम्हारे अंतिम पैरे के एक वाक्य पर अटक गया। उसको अभी तक हज्म नहीं कर पाया हूॅं। लेकिन शायद आजीवन न कर पाऊं। इस वास्ते तुम्हारे प्रति आभार प्रकट करने में अब और देरी करना ज्यादती होगी।
मेरे पिताजी के अनुज की पुत्रवधू के बड़े भाई के बेटे यानी भतीजे होने के नाते तुम्हारा मुझ पर पूरा हक है। वही जिम्मेवार है तुम्हारी रचना में अतिशयोक्ति के लिए। अपने पात्र के बारे में हर लेखक प्रायः इस रोग का शिकार हो जाता है। इसलिए दोष दे भी कैसे सकता हूं ?
फिर भी एक पंक्ति- “उनमें तेज है, ओज है… स्थिति ये है” यह बात मेरे पर कदापि खरी नहीं उतरती.. अगर रत्ती भर भी तेज होता तो अपने आप जाहिर होता। नहीं हो रहा है -इसके मायने हैं कि है ही नहीं।
अब वह वाक्य जिसका इशारा ऊपर किया- “उनके मन को कड़ुवाहट से भर देता है” ओफ ! गजब कर दिया ! कहां पाई तुमने यह कड़वाहट ? मेरे अंदर ! तुम्हारे अंतिम पैरे की नकारात्मक विचारधारा से मैं दूर हूं और वह मुझे परेशान नहीं करती। …अगर वह कड़ुवाहट आदि मेरे अंदर होती तो पता नहीं मैं जी भी पता ? अगर तुम्हें वह मेरे अंदर मिला है, तुम्हारे इस फैसले की मैं कद्र करता हूं। इसने मुझे सचेत कर दिया है।
अगर किसी पात्र के बारे में मेरी यह राय हो कि उसमें कड़ुवाहट भरी हुई है तो मैं उस पर कलम न चलाता। उससे समाज में जहर ही तो फैलेगा ? फिर भी तुमने चलाई। तुम बहुत उदार हो। मेरी कड़ुवाहट को तुमने पी लिया और लिख डाला। इस वास्ते तुम मेरे लिए बैरोमीटर बन गए हो। अब मैं अपने से पूछता रहता हूं- ‘होश में है कि नहीं ? कड़ुवाहट कुछ कम है कि नहीं ?’
पुनः धन्यवाद सहित
स्नेहाधीन
सुरेश राम भाई