रावण रूठा हुआ है
रावण रूठा हुआ है
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रावण रूठा हुआ है
पूछता है मुझ से बार -बार
क्या भाई होना बुरा होता है ?
अपनी माँ जाई से प्यार करना
क्या बुरा होता है ?
बहन के अपमान से नाराज होना
क्या बुरा होता है ?
झेंप जाती हूँ मैं, आँखे फेर लेती हूँ मैं
इन अजीब और नए प्रश्नों से
वो कहता है,
देखो अपने चरो ओर
हर गली चौराहे में मिलेंगे वो,
जो औरतों को भोग की वस्तू समझते हैं
लूटते हैं उनकी इज्जत, तार -तार करते हैं
उसकी इच्छा के बिरुद्ध,
अपने पुरुष होने के मद में
उनको तो नहीं जलाते तुम ?
दशहरा के नाम पे, विजय के गुमान में
बुराई पे अच्छाई की जीत बता के
फिर, फिर मैं ही क्यूँ ?
मैंने तो सीता को, वैसे ही रहने दिया
छुआ भी नही, नहीं ले गया घसीट के
अपने शयनागार में, करता रहा प्रतिच्छा
उसकी सहमति का,
सती थी वो,सती ही की तरह
निष्कलंक गई मेरे आंगन से वो
फिर मैं कैसे हुआ बुरा ?
वो तो राम था…
जिसने विश्वास नहीं किया,
अपनी अर्धांगिनी, अपनी सहचरी पे
एक बार नहीं बार-बार
अग्नि परीक्षा मैंने तो न मांगी थी…?
छल से गर्भवती पत्नी को
मैंने तो जंगल के हवाले नही करवाया था …?
फिर सुध तक न ली…
मैं सीमाओं में बंधी स्त्री को उठा लाया
प्रतिकार के लिए…तो
मेरे वंश का नाश किया
मुझे हर साल जला कर मेरे
अस्तित्व के एक पक्ष से इतिहास गढ़ा
उसी सीता ‘गर्भवती सीता’ को
रात अंधेरे, अनुज के हांथो
जंगल के हवाले किया
पलट कर सुध तक न लिया
जंगल का दुरूह जीवन जीने पे मजबूर किया
तब क्यूँ नही फूंका शंख युद्ध का, अपने ही बिरुद्ध
या उन कुढ़ मगज लोगों के बिरुद्ध
जिसने उसके अर्धांग्नी के सतीत्व पे सवाल खड़ा किया ?
क्या बदल गया था ?
क्या सीता वो पहले वाली रूपवती सीता न थी ?
या, वंश की मर्यादा तब दांव पे न लगी थी ?
कैसा मर्यादा पुरुसोत्तम…?
जिसने एक बार मर्यादा की रक्षा में
मेरे वंश का नाश किया
मेरी सहचरी को मेरे ही अनुज के हवाले किया
जिस सीता के लिए पशू पक्षियों की सेना बनाई
समुद्र को साध, उस पे सेतु बनवाई
उसी सीता के अकेले जंगल में
रात-दिन गुजारने पर मर्यादा हनन नही हुआ…?
गर ये सब ठीक था… तो
जलाओ मुझे, जलता नही अब मैं
तुम्हारे छद्म अहंकार से
तुष्टि मिलती है तुम्हें, तो कोई बात नहीं
पर झाकना कभी फुरसत मिले तो,
अपने वेदों और ग्रंथों में
मैं तो अक्षम्य हूँ, तुम रहो अजेय…अपराजित
मैं रावण होकर ही खुश हूँ…
भाई हूँ अपनी माँ जाई का…
***
[ मुग्द्धार्थ सिद्धार्थ ]