Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
2 Oct 2022 · 21 min read

रावण, परशुराम और सीता स्वयंवर

सीताजी की स्वयंवर में अनगिनत राजाओं , महाराजाओ की उपस्थिती के बारे में अनगिनत कहानियाँ प्रचलित है । ऐसा माना जाता है , शिवजी का भक्त होते के नाते रावण भी सीताजी की स्वयंवर में आया था।

ये बात भी प्रचलित है कि शिवजी के धनुष के टूटने के बाद भगवान श्री परशुराम सीताजी के स्वयंवर स्थल पर आये थे तथा उनका लक्ष्मण जी के साथ वाद विवाद हुआ था। इन बातों में कहाँ तक सच्चाई है , आइये देखते हैं।

राजा जनक के मन में अपनी पुत्री सीताजी के प्रति पड़ा स्नेह था। सीताजी का जन्म राजा जनक के पत्नी के गर्भ से नहीं हुआ था । ऐसा कहा जाता है , एक बार जब उनके राज्य में भूखमरी की समस्या उत्पन्न हो गई थी तब ऋषियों के सलाहानुसार उन्होंने खेत में हल जोता था । और इसी प्रक्रिया में हल के नोंक से जोते जाने पर उनको खेत से सीता के रूप में एक पुत्री की प्राप्ति हुई थी । इस घटना के बाद उनके राज्य में जो दुर्भिक्ष पड़ा हुआ था वो ख़त्म हो गया । इसी कारण वो अपनी पुत्री सीता को विशेष रूप से स्नेह करते थे ।

जब सीताजी विवाह के योग्य हुई तो राजा जनक ने अपनी पुत्री के लिए स्वयंवर रचा और इसके लिए ये शर्त रखी कि जो कोई भी शिव जी के धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा देगा उसी के साथ सीताजी की शादी होगी। सीताजी के स्वयंवर में अनगिनत राजकुमार, राजे और महाराजे आये थे। एक एक कर सबने कोशिश की , परन्तु कोई शिवजी का धनुष हिला तक नहीं पाया।

ऐसा कहते हैं कि रावण भगवान शिवजी का अनन्य भक्त था। चूँकि सीताजी के स्वयंवर में शिव जी के धनुष पर प्रत्यंचा चढाने की शर्त्त थी इसकारण रावण भी सीताजी के स्वयंवर स्थल पर आया था। उसने भी शिवजी के धनुष पर प्रत्यंचा चढाने की कोशिश की थी, परन्तु अपने लाख कोशिश करने के बावजूद वो ऐसा करने में असफल रहा। अंततोगत्वा खीजकर वो वापस अपने राज्य श्रीलंका नगरी को लौट गया।

सबके असफल हो जाने के बाद भगवान श्रीराम अपने गुरु की आज्ञा लेकर शिव जी के धनुष के पास पहुँचे और बड़ी हीं आसानी से धनुष को अपने हाथों में उठा लिया। फिर भगवान श्रीराम जैसे हीं शिव जी के धनुष पर प्रत्यंचा लगाने की कोशिश की , शिव जी का धनुष टूट गया।

शिवजी के धनुष के टूट जाने के बाद भगवान परशुराम सीताजी के स्वयंवर स्थल पर आते हैं और धनुष को टुटा हुआ देखकर अत्यंत क्रुद्ध होते हैं । उनके क्रोध के प्रतिउत्तर में लक्ष्मण जी भी क्रुद्ध हो जाते हैं और उनका परशुराम जी के साथ वाद विवाद होता है । अंत में जब परशुराम जी भगवान श्रीराम जी को पहचान जाते हैं तब अपना धनुष श्रीराम जी हाथों सौपकर लौट जाते हैं ।

तो ये है कहानी रावण और भगवान परशुराम जी के सीताजी के स्वयंवर स्थल पर आने की, जो कि आम जनमानस की स्मृति पटल पर व्याप्त है। वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के स्कन्द संख्या 66 -67 में सीता स्वयंवर की पूरी घटना का वर्णन किया है । देखते हैं कि वाल्मीकि रामायण में रावण और भगवान परशुराम जी के सीताजी के स्वयंवर स्थल पर आने की घटना का जिक्र आता है कि नहीं ? आइये शुरुआत वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के षट्षष्टितमः सर्गः अर्थात सर्ग 66 के श्लोक संख्या 1 से करते हैं।

1.

[वाल्मीकि रामायण] [बालकाण्ड]
[षट्षष्टितमः सर्गः] [ अर्थात 66 सर्ग ]

ततः प्रभाते विमले कृतकर्मा नराधिपः ।
विश्वामित्रं महात्मानमाजुहाव सराघवम् ॥ १॥

प्रात:काल होते ही राजा जनक ने आन्हिक कर्मानुष्ठान से निश्चिन्त हो, दोनों राजकुमारों सहित विश्वामित्र जो को बुला भेजा ॥१॥

तमर्चयित्वा धर्मात्मा शास्त्रदृष्टेन कर्मणा ।
राघवौ च महात्मानौ तदा वाक्यमुवाच ह ॥२॥

शास्त्रविधि के अनुसार अर्घ्यपाद्यादि से विश्वामित्र व राम लक्ष्मण की पूजा कर, धर्मात्मा राजा जनक बोले, ॥ २॥

भगवन्स्वागतं तेऽस्तु किं करोमि तवानघ ।।
भवानाज्ञापयतु मामाज्ञाप्यो भवता ह्यहम् ।।३।।

हे भगवन, आपका मैं स्वागत करता हूँ, कुछ सेवा करने के लिये आज्ञा दीजिये । क्योंकि मैं आपकी आज्ञा का पात्र हूँ।

2.

एवमुक्तः स धर्मात्मा जनकेन महात्मना ।
प्रत्युवाच मुनिर्वीरं वाक्यं वाक्यविशारदः॥४॥

जब महात्मा जनक जी ने ऐसा कहा तब बातचीत करने में अत्यन्त चतुर विश्वामित्र जी राजा से बोले ॥४॥

पट्पष्टितमः सर्गः पुत्रौ दशरथस्येमौ क्षत्रियो लोकविश्रुतौ । |
द्रष्टुकामा धनुःश्रेष्ठं यदेतत्त्वयि तिष्ठति ॥५॥

ये दोनों कुमार महाराज दशरथ के पुत्र, क्षत्रियों में श्रेष्ठ, और लोक में विख्यात श्रीरामचन्द्र एवं लक्ष्मण, वह धनुष देखना चाहते हैं, जो आपके यहाँ रखा है ॥ ५ ॥
.
एतद्दर्शय भद्रं ते कृतकामा नृपात्मजौ । .
दर्शनादस्य धनुपो यथेष्ट प्रतियास्यतः ॥ ६॥

आपका मंगल हो; अतः आप उसे इन्हें दिखलवा दीजिये। उसे देखने ही से इनका प्रयोजन हो जायगा और ये चले जायगे ॥६॥

3.

एवमुक्तस्तु जनकः प्रत्युवाच महामुनिम् ।
श्रूयतामस्य धनुषो यदर्थमिह तिष्ठति ॥७॥

यह सुन राजा जनक, विश्वामित्र जी से वाले कि, जिस प्रयोजन के लिये यह धनुप यहाँ रखा है, उसे सुनिये ॥७॥

देवरात इति ख्यातो निमः षष्ठो महीपतिः।
न्यासोऽयं तस्य भगवन्हस्ते दत्तो महात्मना ॥८॥

हे भगवन् ! राजा निमि की छठवीं पीढ़ी में देवरात नाम के एक राजा हो गये हैं । उनको यह धनुष धरोहर के रूप में मिला।

दक्षयज्ञवधे पूर्व धनुरायम्य वीर्यवान् ।
रुद्रस्तु त्रिदशाबोपात्सलीलमिदमब्रवीत् ॥९॥

4.

पूर्वकाल में जव महादेव जी ने दत्त प्रजापति का विध्वंस कर डाला (क्योंकि उसमें महादेव जो को यक्षमाग नहीं मिला था) तब लीलाक्रम से शिव जी ने क्रोध में भर यही धनुष ले देवताओं से कहा था ॥६॥

यस्माद्भागार्थिनेा भागानाकल्पयत मे सुराः ।
वराङ्गाणि महार्हाणि धनुपा शातयामि वः ॥ १०॥

हे देवो! यतः (चूँकि ) तुम लोगों ने मुझ भागार्थी को यक्षमाग नहीं दिया, अतः मैं इस धनुष से तुम सब के सिरों को काटे डालता हूँ॥ १०॥

ततो विमनसः सर्वे देवा वै मुनिपुङ्गव ।
प्रसादयन्ति देवेशं तेषां प्रीतोऽभवद्भवः ॥ ११ ॥

हे मुनिप्रवर! शिव जी का यह वचन सुन देवता लोग बहुत उदास हो गये और किसी न किसी तरह शिव जी को मना कर प्रसन्न किया ॥ ११॥

प्रीतियुक्तः स सर्वेषां ददौ तेषां महात्मनाम् ।
तदेतदेवदेवस्य धनूरनं महात्मनः ।। १२॥

5.

तब प्रसन्न हो कर महादेव जी ने यह धनुष देवताओ को दे दिया और देवताओं ने उस धनुष को धरोहर की तरह देवताओ को दे दिया । सो यह वही धनुष है ॥ १२॥

न्यासभूतं तदा न्यस्तमस्माकं पूर्वके विभो ।
अथ मे कृषतः क्षेत्र लाङ्गलादुत्थिता ततः ॥ १३ ॥

एक समय यज्ञ करने के लिये मैं हल से खेत जोत रहा था। उस समय हल की नोंक से एक कन्या भूमि से निकली॥ १३ ॥

क्षेत्रं शोधयता लब्धा नाम्ना सीतेति विश्रुता।
भूतलादुत्थिता सा तु व्यवर्धत ममात्मजा ॥ १४ ॥

अपने जन्म के कारण सीता के नाम से प्रसिद्ध है और मेरी लड़की कहलाती है। पृथिवी से निकली हुई वह कन्या दिनों दिन मेरे यहां बड़ी होने लगी ॥ १४ ॥

6.

वीर्यशुल्केति मे कन्या स्थापितेयमयोनिजा।
भूतलादुत्थितां तां तु वर्धमानां ममात्मजाम् ॥ १५॥

उस प्रयोनिजा कन्या के विवाह के लिये मैंने पराक्रम ही शुल्क रखा है। पृथिवी से निकली हुई मेरो यह कन्या जब धीरे धीरे बड़ी होने लगी ॥ १५॥

“वरयामासुरागम्य राजानो मुनिपुङ्गव ।
तेषां वरयतां कन्यां सर्वेषां पृथिवीक्षिताम् ॥ १६ ॥

वीर्यशुल्केति भगवन्न ददामि सुतामहम् ।
ततः सर्वे नृपतयः समेत्य मुनिपुङ्गव ।। १७ ॥

तब , हे मुनिश्रेष्ठ ! मेरी उस कन्या के साथ अपना विवाह करने के लिये अनेक देशों के राजा आये । सीता के साथ विवाह करने की इच्छा रखने वाले उन सब राजाओं से कहा गया कि, यह कन्या “वीर्यशुल्का” है। अतः मैं वर के पराक्रम की परीक्षा लिए बिना अपनी कन्या किसी को नहीं दूंगा॥ १६ ॥ १७ ॥

7.

मिथिलामभ्युपागम्य वीर्यजिज्ञासवस्तदा।
तेषां जिज्ञासमानानां वीर्यं धनुरुपाहृतम् ॥ १८ ॥

तव तो हे मुनिश्रेष्ठ! सब राजा लोग एक हो अपने पराक्रम की परीक्षा देने को मिथिलापुरी में पाये। उनके बल की परीक्षा के लिये मैंने यह धनुष उनके सामने (रोदा चढ़ाने के लिये) रखा ॥१८॥

न शेकुर्ग्रहणे तस्य धनुषस्तोलनेऽपि वा।
तेषां वीर्यवतां वीर्यमल्पं ज्ञात्वा महामुने ॥ १९ ॥

उनमें से कोई भी राजा उस धनुष को उठा कर उस पर रोदा न चढ़ा सका, तव उन राजाओं को अल्पवीर्य समझ॥ १९॥

प्रत्याख्याता नृपतयस्तन्निवोध तपोधन।
ततः परमकोपेण राजाना मुनिपुङ्गव ॥ २० ॥

8.

अरुन्धन्मिथिलां सर्वे वीर्यसन्देहमागताः।
आत्मान मवधृतं ते विज्ञाय नृपपुङ्गवाः ॥ २१॥

मैंने उनमें से किसी को अपनी कन्या नहीं दी। हे मुनिराज, यह बात श्राप भी जान लें। [जब मैंने अपनी कन्या का विवाह उनमें से किसी के साथ नहीं किया] तब उन लोगों ने क्रुद्ध हो मिथिला पुरी घेर ली। क्योंकि धनुष द्वारा बल की परीक्षा देने में उन्होंने अपना तिरस्कार समझा ॥ २० ॥ २१ ॥

पट्पष्टितमः सर्गः रोपेण महताऽविष्टाः पीडयन्मिथिलां पुरीम् ।।
ततः संवत्सरे पूर्णे क्षयं यातानि सर्वशः ।। २२ ।।

9.

साधनानि मुनिश्रेष्ठ ततोऽहं भृशदुःखितः ।
ततो देवगणान्सर्वान्स्तपसाहं प्रसादयम् ॥ २३ ॥

उन लोगों ने अत्यन्त क्रुद्ध हो मिथिला वासियों को बड़े बड़े कष्ट दिये । एक वर्ष तक लड़ाई होने से मेरा धन भी बहुत नष्ट हुआ । इसका मुझे बड़ा दुःख हुआ । तब मैंने तप द्वारा देवताओं को प्रसन्न किया ॥ २२ ॥ २३ ॥

ददुश्च परममीताश्चतुरङ्गवलं सुराः ।।
ततो भग्ना नृपतयो हन्यमाना दिशा ययुः ॥ २४॥

देवताओं ने अत्यन्त प्रसन्न हो कर मुझे चतुरङ्गिणी सेना दी। तब हतोत्साह राजा पराजित हो भाग गये ॥ २४ ॥

अवीर्या वीर्यसन्दिग्धाः सामात्या. पापकारिणः ।
तदेतन्मुनिशार्दूल धनुः परममावरम् ।
रामलक्ष्मणयोश्चापि दर्शयिष्यामि सुव्रत ॥ २५ ॥

10.

भीरु और वीरता की झूठी डींगे मारने वाले वे राजा अपने मंत्रियों सहित भाग गये। हे मुनिश्रेष्ठ, यह वही दिव्य धनुष है। हे सुव्रत, मैं इसे श्रीरामचन्द्र लक्ष्मण को भी दिखलाऊँगा ॥ २५ ॥

यद्यस्य धनुपो रामः कुर्यादारोपणं मुने ।
सुतामयोनिजां सीतां दद्यां दाशरथेरहम् ॥ २६ ॥

और यदि श्रीरामचन्द्र जी ने धनुष पर रोदा चढ़ा दिया, तो मैं अपनी अयोनिजा सीता उनको व्याह दूंगा ॥ २६॥

इति पट्पष्टितमः सर्गः॥
[बालकाण्ड का छियासठवा सर्ग समाप्त हुआ]

इस प्रकार हम सर्ग 66 में जो वर्णन देखते हैं वो ये है कि राजा जनक जी के कहने पर विश्वामित्र ही श्रीराम जी और लक्ष्मण जी को साथ लेकर सीताजी के स्वयंवर स्थल पर पहुँचते है और धनुष को दिखलाने को कहते हैं ।

इस बात के प्रतिउत्तर में जनक जी उस शिव जी के धनुष के बारे में बताते हैं कि वो उनके पास आया। राजा जनक जी आगे बताते हैं कि कि सीता उनकी अपनी पुत्री नहीं है अपितु हल से खेत जोतने के कारण प्राप्त हुई है। सीताजी के विवाह के लिए इस धनुष पर प्रत्यंचा चढाने को हीं इस स्वयंवर की शर्त बना दिया गया ।

वीर्यशुल्क का अर्थ है जिसे वीरत्व द्वारा प्राप्त किया जा सके। जनक जी आगे बताते है कि अनेक राजे और महाराजे आकर उस धनुष पर प्रत्यंचा चढाने की कोशिश करते हैं परन्तु कोई भी सफल नहीं हो पाता है । अंत में वो सब मिलकर जनक जी पर एक साल तक आक्रमण करते रहते हैं ।

जब राजा जनक की तपस्या कर देवताओं से चतुरंगिनी सेना प्राप्त करते हैं जब जाकर वो राजा भाग जाते हैं । इस प्रकार हम देखते हैं कि सीता स्वयंवर में एक साथ सारे राजा आकर प्रयास नहीं करते हैं , जैसा कि आम जन मानस में प्रचलित है ।

जनक जी विश्वामित्र मुनि को आगे बताते हैं कि अगर श्रीराम जी इस शिव धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा देते हैं तो वो अपनी पुत्री का विवाह श्रीराम चन्द्र जी से कर देंगे। इस प्रकार हम देखते है कि वाल्मीकि रामायण के सर्ग 66 में अनेक राजाओ के आने का जिक्र है , अनेक राजाओ द्वारा जनक जी पर एक साल तक आक्रमण करने का जिक्र आता है परन्तु कहीं भी रावण के आने का जिक्र नहीं आता है । सीताजी के स्वयंवर में रावण के आने की घटना मात्र कपोल कल्पित है। सीताजी के स्वयंवर में रावण कभी आया हीं नहीं था । अब आगे देखते हैं कि सर्ग संख्या 67 में क्या वर्णन किया गया है ।

11.

[वाल्मीकि रामायण] [बालकाण्ड]
[सप्तषष्टितमः सर्गः] [67 सर्ग]

जनकस्य वचः श्रुत्वा विश्वामित्रो महामुनिः ।
धनुर्दर्शय रामाय इति होवाच पार्थिवम् ॥ १॥

राजा जनक की बातें सुन महर्षि विश्वामित्र ने राजा जनक से कहा-हे राजन् ! वह धनुष श्रीरामचन्द्र को दिखलाइये ॥१॥

ततः स राजा जनकः सचिवान्व्यादिदेश ह ।
धनुरानीयतां दिव्यं गन्धमाल्यविभूषितम् ॥ २॥

तब राजा जनक ने अपने मंत्रियों को आज्ञा दी कि, जो दिव्य धनुष चन्दन और पुष्पमालाओं से भूषित है, उसे ले आओ ॥२॥

जनकेन समादिष्टाः सचिवाः प्राविशन्पुरीम् ।
तद्धनुः पुरतः कृत्वा निर्जग्मुः पार्थिवाज्ञया ॥३॥

राजा जनक को आज्ञा पा कर मंत्री लोग मिथिलापुरी में गये (यज्ञशाला नगरी के वाहर बनी थी ) और उस धनुष को आगे कर चले ॥ ३ ॥

12.

नृणां शतानि पञ्चाशद्वयायतानां महात्मनाम् ।
मञ्जूषामष्टचक्रां तां समूहुस्ते कथञ्चन ॥ ४ ॥

पांच हज़ार मज़बूत मनुष्य, धनुष को आठ पहिये को पेटी को, कठिनता से खींच और ढकेल कर वहाँ ला सके ॥४॥ .

तामादाय तु मञ्जूपामायसी यत्र तदनुः । ‘
सुरोपमं ते जनकमूचुर्नृपतिमन्त्रिणः ॥ ५॥

जिस पेटी में धनुष रखा था वह लोहे की थी उसे लाकर, मंत्रियों ने सुरोपम महाराज जनक को इस बात को सूचना दी ।। ५ ।।

इदं धनुर्वरं राजपूजितं सर्वराजभिः ।
मिथिलाधिप राजेन्द्र दर्शयनं यदीच्छसि ॥ ६॥

13.

मंत्री बोले-हे राजन् ! यह वही धनुप है, जिसकी पूजा सब राजा कर चुके हैं। हे मिथिला के अधीश्वर, हे राजेन्द्र ! अब आप जिसको चाहिये इसे दिखलाइये ॥ ६ ॥

तेषां नृपो वचः श्रुत्वा कृताञ्जलिरभापत।
विश्वामित्रं महात्मानं तो चोभौ रामलक्ष्मणौ ।। ७ ।।

मंत्रियों की बात सुन, राजा ने हाथ जोड़ कर, महात्मा विश्वामित्र और राम लक्ष्मण से कहा ॥ ७ ॥

इदं धनुर्वरं ब्रह्मञ्जनकैरभिपूजितम् ।
राजभिश्च महावीरशक्तैः पूरितुं पुरा ॥ ८॥

हे ब्रह्मन् ! यह श्रेष्ठ धनुप वही है, जिसका पूजन सव निमिवंशीय जा करते चले आते हैं और यह वही धनुष है जिस पर बड़े बड़े पराक्रमी राजा लोग रोदा नहीं चढ़ा सके ॥८॥

14.

नैतत्सुरगणाः सर्वे नासुरा न च राक्षसाः ।
गन्धर्वयक्षप्रवराः सकिन्नरमहारगाः ॥९॥

क गतिर्मानुपाणां च धनुपोऽस्य प्रपूरणे ।
आरोपणे समायोगे वेपने तोलनेऽपि वा ॥१०॥

समस्त देवता, असुर, राक्षस, गन्धर्व, यक्ष, किन्नर और नाग भी जब इस धनुष को उठा और सुता कर इस पर रोदा नहीं चढ़ा सके, तब पुरे मनुष्य की तो बात ही क्या है जो इस धतुप पर रोदा चढ़ा सके । ॥ ९ ॥ १०॥

तदेतद्धनुपा श्रेष्ठमानीतं मुनिपुङ्गव ।
दर्शयैतन्महाभाग अनयो राजपुत्रयोः ॥ ११ ॥

हे ऋषिश्रेष्ठ ! वह श्रेष्ठ धनुष आ गया है। हे महाभाग ! उसे इन राजकुमारों को दिखलाइये ॥११॥

15.

विश्वामित्रस्तु धर्मात्मा श्रुत्वा जनकभापितम् ।
वत्स राम धनुः पश्य इति राघवमब्रवीत् ॥ १२ ॥

धर्मात्मा विश्वामित्र जी ने जब राजा जनक के ये वचन सुने, तब उन्होंने श्रीरामचन्द्र जी से कहा-हे वत्स! इस धनुष को देखो ॥ १२॥

ब्रह्मवंचनाद्रामा यत्र तिष्ठति तद्धनुः ।
मञ्जूषां तामपावत्य दृष्ट्वा धनुरथाब्रवीत् ॥ १३॥ .

महर्षि के ये पचन हुन, श्रीरामचन्द्र जी वहां गये जहां धनुष था और उस पेटी को, जिसमें वह धनुष था, खोल कर, धनुष देखा और बोले ॥ १३ ॥

16.

इदं धनुर्वरं ब्रह्मन्संस्पृशामीह पाणिना ।
यनवांश्च भविष्यामि तोलने पूरणेपि वा ॥ १४ ॥

हे ब्राह्मण अब इस धनुष को मैं हाथ लगाता हूँ और इसे उठा कर इस पर रोदा चढ़ाने का प्रयत्न करता हूँ॥ १४ ॥

बाहमित्येव तं राजा मुनिश्च समभापत |
लीलया स धनुमध्ये जग्राह वचनान्मुनेः ॥ १५ ॥

राजा जनक और विश्वामित्र ने उनकी बात अंगीकार करते हुए कहा “बहुत अच्छा”। मुनि के वचन सुन, श्रीरामचन्द्र जी ने बिना प्रयास धनुष को बीच से पकड़ उसे उठा लिया ॥ १५ ॥

पश्यतां नृसहस्राणां वहूनां रघुनन्दनः ।
आरोपयत्स धर्मात्मा सलीलमिव तद्धनुः ॥१६॥

और हजारों मनुष्यों के सामने धारिमा श्रीरामचन्द्र जी ने विना प्रयास उस पर रोदा चढ़ा दिया ॥ १६ ॥

17.

आरोपयित्वा धर्मात्मा पूरयामास वीर्यवान् ।
तद्वभञ्ज धनुर्मध्ये नरश्रेष्ठो महायशाः ॥ १७॥

महायशस्वी पुरुषोत्तम पर्व वलवान् श्रीराम ने रोदा चढ़ाने के वाद ज्यों ही रोदे को खींचा, त्यों ही वह धनुष वीच से टूट गया। अर्थात् उस धनुष के दो टुकड़े हो गये ॥ १७ ॥

तस्य शब्दो महानासीनिर्यातसमनिःस्वनः ।।
भूमिकम्पश्च सुमहान्पर्वतस्येव दीर्यतः ॥ १८ ॥

उसके टूटने का शब्द बज्रपात के समान हुआ । बड़े जोर से भूमि हिल गयी और बड़े बड़े पहाड़ फट गये ॥ १८ ॥

निपेतुश्च नराः सर्वे तेन शब्देन मोहिताः ।।
वर्जयित्वा मुनिवरं राजानं तौ च राघचौ ॥ १९ ।

18.

धनुष के टूटने के विकराल शब्द के होने पर, विश्वामित्र, राजा जनक और दोनों राजकुमारों को छोड़, सब लोग मूर्छित हो गिर पड़े ॥ १६ ॥

प्रत्याश्वस्ते जने तस्मिन्राजा विगतसाध्वसः ।
उवाच प्राञ्जलिक्यिं वाक्यज्ञो मुनिपुङ्गवम् ।। २० ॥

सब लोगों की मूर्छा भङ्ग हुई और सचेत हुए तथा राजा जनक के सब सन्देह दूर हो गये, तब राजा जनक हाथ जोड़, चतुर विश्वामित्र से कहने लगे ॥ २० ॥

भगवन्दृष्टवीर्यो मे रामो दशरथात्मजः ।
अत्यद्भुतमचिन्त्यं च न तर्कितमिदं मया ॥ २१॥

हे भगवन् ! महाराज दशरथ जो के पुत्र श्रीरामचन्द्र जी का यह अत्यन्त विस्मयोत्पादक अचिन्त्य और अतर्षित [जिसमें सन्देह करने की गुञ्जायश न हो ] पराक्रम मैंने देखा ॥ २१ ॥

जनकानां कुले कीर्तिमाहरिष्यति मे सुता।
सीता भतारमासाच रामं दशरथात्मजम् ॥ २२ ॥

19.

मेरी बेटी सीता, महाराज दशरथ जी के पुत्र श्रीरामचन्द्र जी को अपना पति बना कर मेरे वंश की कीर्ति फैलायेगी ॥ २२॥

मम सत्या प्रतिज्ञा च वीर्यशुल्केति कौशिक ।
सीता पाणवहुरता देया रामाय मे सुता ।। २३ ॥

हे कौशिक ! मैंने सीता के विवाह के लिये “वीर्यशुल्क ” की जो प्रतिज्ञा की थी वह आज पूरी हो गयो । श्रम में अपनी प्राणों से भी पढ़ कर प्यारी सीता श्रीराम को दूंगा ॥ २३ ॥

भवतोऽनुमते ब्रह्मशीघ्रं गच्छन्तु मन्त्रिणः ।
मम कौशिक भद्रं ते अयोध्यां त्वरिता रथैः ॥२४॥

हे ब्रह्मन् ! हे कौशिक ! यदि श्रापकी सम्मति हो तो मेरे मंत्री रथ पर सवार हो शीघ्र अयोध्या को जाय ॥ २४ ॥

राजानं प्रश्रितैर्वाक्यैरानयन्तु पुर मम ।
प्रदानं वीर्यशुल्कायाः कथयन्तु च सर्वशः ।। २५ ॥

20.

और महाराज दशरथ को नम्रतापूर्वक यहां का सारा हाल सुना कर, यहाँ लिवा लावें ॥ २५ ॥

मुनिगुप्तौ च काकुत्स्थो कथयन्तु नृपाय वै ।
प्रीयमाणं तु राजानमानयन्तु सुशीघ्रगाः ।। २६ ॥

और महाराज को, आपसे रक्षित, दोनों राजकुमारों का कुशल समाचार भी सुनावें और इस प्रकार महाराज को प्रसन्न कर, उन्हें प्रति शीत्र यहाँ बुला लावे ॥ २६ ॥

कौशिकश्च तथेत्याह राजा चाभाष्य मन्त्रिणः।
अयोध्यां प्रेषयामास धर्मात्मा कृतशासनान् ॥ २७॥

इस पर जब विश्वामित्र ने कह दिया कि, बहुत अच्छी बात है, तव राजा ने मंत्रियों को समझा कर और महाराज दशरथ के नाम का कुशलपत्र उन्हें दे, अयोध्या को रवाना किया ॥ २७ ॥

इति सप्तषष्टितमः सर्गः[सरसठवां सर्ग समाप्त हुआ]

21.

[वाल्मीकि रामायण] [बालकाण्ड]
[अष्टषष्टितमः सर्गः] [ अर्थात 68 सर्ग ]

जनकेन समादिष्टा दूतास्ते क्लान्तवाहनाः ।
त्रिरात्रमुषिता मार्गे तेऽयोध्यां प्राविशन्पुरीम् ॥ १ ॥

राजा जनक की आज्ञा पा दूत शीघ्रगामी रथों पर सवार हो और रास्ते में तीन रात्रि व्यतीत कर, अयोध्या में पहुँचे। उस समय उनके रथ के घोड़े थक गये थे॥१॥

राज्ञो भवनमासाद्य द्वारस्थानिदमब्रुवन् ।
शीघ्र निवेद्यतां राज्ञे दूतान्नो जनकस्य च ॥ २॥

और राजभवन की ड्योढ़ी पर जा कर द्वारपालों से यह बोले कि, जा कर तुरन्त महाराज से निवेदन करो कि, हम राजा जनक के दूत (आपके दर्शन करना चाहते ) हैं ॥२॥

वाल्मीकि रामायण के 67 सर्ग में ये दर्शाया गया है कि राजा जनक जी द्वारा सीताजी के स्वयंवर के लिए शिव जी के धनुष पर प्रत्यंचा चढाने की शर्त्त बनाये जाने पर वो जनक जी से निवेदन करते हैं कि शिव जी के उस धनुष की दिखलाया जाये।

शिव जी धनुष उस महल में नहीं रखा हुआ था । शिव जी धनुष महल से कहीं दूर मिथिला नगरी के एक यज्ञ शाला में रखा हुआ था । वो धनुष कितना विशाल और भारी होगा , इस बात का अंदाजा सर्ग 67 के श्लोक संख्या 3 और 4 से लगाया जा सकता है।

शिव जी का वो धनुष इतना भारी था कि उसे पांच हजार लोग 8 पेटी की सहायता से खींच रहे थे । जाहिर सी बात है वो साधारण धनुष कतई नहीं था । आगे की घटना क्रम में ये दर्शया गया है कि गुरु विश्वामित्र की आज्ञा से शिव जी धनुष , जो कि एक पेटी में रखा हुआ था , श्रीराम जी बड़ी आसानी से हाथों में उठा लेते हैं। श्रीराम जी जैसे हीं प्रत्यंचा लगाने की कोशिश करते हैं , वो धनुष टूट जाता है ।

धनुष के टूट जाने के बाद जनक जी अति प्रसन्न हो जाते है और श्रीराम जी से अपनी पुत्री सीताजी से विवाह करने के लिए राजा दशरथ जी के पास अपना दूत भेज देते हैं। इसी के साथ 67 वां सर्ग समाप्त हो जाता है और सर्ग संख्या 68 की शुरुआत हो जाती है । फिर सर्ग संख्या 68 में जनक जी के दूत का दशरथ जी के पास जाने और फिर जनक जी के निमंत्रण पर दशरथ जी के मिथिला आने तथा श्रीराम जी और सीताजी के विवाह का वर्णन किया गया है।

जब श्रीराम जी और उनके भाइयों की शादी सीताजी और उनके बहनों के साथ हो जाती है और जब वो लोग अयोध्या की तरफ प्रस्थान कर जाते हैं तब रास्ते में लौटने के दौरान रामजी और दशरथजी का सामना परशुराम जी होता है , ना कि सीताजी के स्वयंवर स्थल पर। जिस तरह से लक्ष्मण और परशुराम जी के बीच में वार्तालाप दिखाया जाता है, उसका वर्णन भी वाल्मिकी रामायण में नहीं मिलता है। भगवान श्री परशुराम और लक्ष्मण जी के बीच वाद और विवाद का उल्लेख किसी कोरी कल्पना से कम नहीं।

इस घटना का वर्णन वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के सर्ग संख्या 75 से सर्ग संख्या 77 में किया गया है। आईये देखते हैं कि इस घटनाक्रम का वर्णन किस तरह से किया गया है ? पहले तो परशुराम जी श्रीराम जी द्वारा शिव जी के धनुष को तोड़े जाने पर प्रशंसा करते हैं फिर द्वंद्व युद्ध के लिए श्रीराम को ललकारते हैं तो स्वाभाविक रूप से दशरथ जी घबड़ाकर उनसे विनती करने लगते हैं। वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के पञ्चसप्ततितमः सर्गः अर्थात 75 सर्ग के श्लोक संख्या 1 की शुरुआत परशुराम जी के इस प्रकार कहने से होती है।

22.

[वाल्मीकि रामायण] [बालकाण्ड]
[पञ्चसप्ततितमः सर्गः ] [ अर्थात 75 सर्ग ]

राम दाशरथे राम वीर्यं ते श्रूयतेऽद्भुतम् ।
धनुषो भेदनं चैव निखिलेन मया श्रुतम् ॥१॥

हे वीर राम! तुम्हारा पराक्रम अदभुत सुनाई पड़ता है। जनकपुर में तुमने जो धनुष तोड़ा है उसका सारा वृत्तान्त भी मैंने सुना है।

तदद्भुतमचिन्त्यं च भेदनं धनुपस्त्वया ।
तच्छु, त्वाऽहमनुप्राप्तो धनुर्गृह्यपरं शुभम् ॥ २ ॥

उस धनुप का तोड़ना विस्मयोत्पादक और ध्यान में न पाने योग्य बात है। उसीका वृत्तान्त सुन हम यहां पाये हैं और एक दूसरा उत्तम धनुष लेते आये हैं ॥२॥

तदिदं घोरसङ्काशं जामदग्न्यं महद्धनुः ।
पूरयस्व शरेणैव खवलं दर्शयस्य च ।। ३ ।।

यह भयङ्कर बड़ा धनुष जमदग्नि ऋषि जी का है (अथवा इस धनुष का नाम जामदग्न्य है ) इस पर रोदा चढ़ा कर और वाण चढ़ा कर, आप अपना बल मुझे दिखलाइये ॥३॥

23.

तदहं ते बालम दृष्ट्वा धनुपोऽस्य प्रपूरणे ।
द्वन्द्वयुद्धं प्रदास्यामि वीयर्याश्लाध्यमहं तव ॥ ४ ॥

इस धनुष के चढ़ाने से तुम्हारे बल को हम जान लेंगे और उसकी प्रशंसा कर हम तुम्हारे साथ द्वन्द्व युद्ध करेंगे ॥४॥

तस्य तद्वचनं श्रुत्वा राजा दशरथस्तदा।
विषण्णवदना दीनः प्राञ्जलिवाक्यमब्रवीत् ॥ ५ ॥

परशुराम जी की ये बातें सुन, महाराज दशरथ उदास हो गये और दीनतापूर्वक ( अर्थात् परशुराम की खुशामद कर के) और हाथ जोड़ कर कहने लगे ॥ ५ ॥

क्षत्ररोषात्पशान्तस्त्वं ब्राह्मणश्च महायशाः ।
बालानां मम पुत्राणामभयं दातुमर्हसि ॥६॥

हे परशुराम जी! आपका क्षत्रियों पर जो कोप था वह शान्त हो चुका, क्योंकि आप तो बड़े यशस्वी ब्राह्मण हैं। (अथवा श्राप ब्राह्मण हैं अतः क्षत्रियों जैसी गुस्सा को शान्त कीजिये, क्योंकि ब्राह्मणों को कोप करना शोभा नहीं देता) श्राप मेरे इन बालक पुत्रों को अभयदान दीजिये ॥६॥

24.

भार्गवाणां कुले जातः खाध्यायव्रतशालिनाम् ।
सहस्राक्षे प्रतिज्ञाय शस्त्रं निक्षिप्तवानसि ॥७॥

वेदपाठ में निरत रहने वाले भार्गववंश में उत्पन्न श्राप तो इन्द्र के सामने प्रतिज्ञा कर सब हथियार त्याग चुके हैं ॥ ७॥

स त्वं धर्मपरो भूत्वा कश्यपाय वसुन्धराम् । .
दत्वा वनमुपागम्य महेन्द्रकृतकेतनः ॥ ८॥

और सारी पृथिवी का राज्य कश्यप को दे, आप तो महेन्द्राचल के वन में तप करने चले गये थे ॥ ८ ॥

मम सर्वविनाशाय संप्राप्तस्त्वं महामुने। ,
न चैकस्मिन्दते रामे सर्वे जीवामहे वयम् ॥ ९ ॥

(पर हम देखते हैं कि,) आप हमारा सर्वस्व नष्ट करने के लिये (पुनः) आये हैं। (आप यह जान रखें कि, ) यदि कहीं हमारे अकेले राम ही मारे गये तो हममें से कोई भी जीता न बचेगा॥६॥

25.

सत्यवानों में श्रेष्ठ (ब्रह्मा जी ने ) उन दोनों में (अर्थात भगवान विष्णु जी और भगवान शिव जी में ) बड़ा विरोध उत्पन्न कर दिया । इस विरोध का परिणाम यह हुआ कि, उन दोनों में रोमाञ्चकारी घोर युद्ध हुआ ॥ १६ ॥

शितिकण्ठस्य विष्णाश्च परस्परजयैषिणोः।
तदा तु जृम्भितं शैवं धनुर्मीमपराक्रमम् ॥ १७ ॥ महादेव और विष्णु एक दूसरे को जीतने की इच्छा करने लगे। महादेव जी का बड़ा मज़बूत धनुष ढीला पड़ गया ॥ १७ ॥

हुकारेण महादेवस्तम्भितोऽथ त्रिलोचनः ।
देवैस्तदा समागम्य सर्पिसङ्घः सचारणैः ।। १८ ॥

तीन नेत्र वाले महादेव जी विष्णु जी के हुँकार करने ही से स्तम्भित हो गये। (अर्थात् विष्णु ने शिव को हरा दिया ) तव ऋषियों और चारणों सहित सब देवताओं ने वहाँ पहुँच कर दोनों की प्रार्थना की और युद्ध बंद करवाया ॥१८॥

26.

अधिक मेनिरे विष्णु देवाः सपिंगणास्तदा ।
धनू रुद्रस्तु संक्रुद्धो विदेहेषु महायशाः ॥ २० ॥

विष्णु के पराक्रम से शिव के धनुष को ढीला देख, ऋषियों सहित देवताओं ने विष्णु को (अथवा विष्णु के धनुष को अधिक पराक्रमी (अथवा दूढ़) समझा । महादेव जी ने इस पर कुद्ध हो, अपना धनुष विदेह देश के महायशस्वी ॥ २० ॥

देवरातस्य राजददी हस्ते ससायकम् ।
इदं च वैष्णवं राम धनुः परपुरञ्जयम् ॥२१॥

राजर्षि देवरात के हाथ में वाण सहित दे दिया । हे राम! मेरे हाथ में यह जो धनुष है, यह विष्णु का है और यह भी शत्रुओ के पुर का नाश करने वाला है ॥ २१ ॥

ऋचीके भार्गवे पदाद्विष्णुः सन्न्यासमुत्तमम् ।
ऋचीकस्तु महातेजाः पुत्रस्याप्रतिकर्मणः ॥ २२ ॥ .

27.

[वाल्मीकि रामायण] [बालकाण्ड]
[पट्सप्ततितमः सर्गः ] [ अर्थात 76 सर्ग ]

परशुराम जी के वचन सुन श्रीरामचन्द्र जी अपने पिता महाराज दशरथ के गौरव से अर्थात् अपने पिता का अदब कर के, मन्दस्वर (धीरे ) से बोले ॥१॥

श्रुतवानस्मि यत्कर्म कृतवानसि भार्गव ।
अनुरुध्यामहे ब्रह्मन्पितुरानृण्यमास्थितः ॥ २॥

हे परशुराम जी! आपने जो जो काम किये हैं, वे सब मैं सुन चुका हूँ। आपने जिस प्रकार अपने पिता के मारने वाले से बदला लिया-वह भी मुझे विदित है ॥ २॥

वीर्यहीनमिवाशक्त क्षत्रधर्मेण भार्गव ।
अवजानासि मे तेजः पश्य मेध पराक्रमम् ॥ ३॥

किन्तु आप जो यह समझते हैं कि, हम वीर्यहीन हैं, हममें क्षात्रधर्म का अभाव है, अतः आप जो हमारे तेज का निरादर करते हैं अब आप हमारा पराक्रम देखिये ॥ ३ ॥

28.

इत्युक्त्वा राघवः क्रुद्धो भार्गवस्य शरासनम् ।
शरं च प्रतिजग्राह हस्ताल्लघुपराक्रमः ॥४॥

यह कह कर और क्रोध में भर श्रीरामचन्द्र जी ने परशुराम . के हाथ से धनुष और वाण झट ले लिया ॥४॥

आरोप्य स धनू रामः शरं सज्यं चकार ह ।
जामदग्न्यं ततो रामं रामः क्रुद्धोऽब्रवीदिदम् ॥ ५॥

और धनुष पर रोदा चढ़ा कर उस पर वाण चढ़ा, जमदग्नि के पुत्र परशुराम से श्रीरामचन्द्र जी क्रुद्ध होकर यह बोले ॥५॥

ब्राह्मणोऽसीति मे पूज्यो विश्वामित्रकृतेन च ।
तस्माच्छतो न ते राम मोक्तुं प्राणहरं शरम् ॥ ६॥

परशुराम जी ! एक तो ब्राह्मण होने के कारण प्राप मेरे पूज्य है, दूसरे आप विश्वामित्र जी के नातेदार (विश्वामित्र जो की बहिन के पौत्र) है । अतः इस वाण को आपके ऊपर छोड़कर, आपके प्राण लेना मैं नहीं चाहता ॥६॥

29.

हे राम! अब आप इस अद्वितीय बाण को छोड़िये। वाण के छूटते ही मैं पर्वतोत्तम महेन्द्राचल को चला जाऊँगा ॥ २० ॥

तथा ब्रुवति रामे तु जामदग्न्ये प्रतापवान् ।
रामो दाशरथिः श्रीमांश्चिक्षेप शरमुत्तमम् ॥ २१॥ .

जब प्रतापी परशुराम ने श्रीरामचन्द्र से इस प्रकार कहा, तब दशरथनन्दन श्रीरामचन्द्र ने उस उत्तम बाण को छोड़ दिया ॥२१॥

स हतान्दृश्य रामेण, स्वाँल्लोकांस्तपसाऽऽर्जितान् ।
जामदग्न्यो जगामाशु महेन्द्र पर्वतोत्तमम् ॥ २२ ॥

वाण से तप द्वारा इकट्ठे किये हुए लोकों को नष्ट हुश्रा देख, परशुराम जी तुरन्त महन्द्राचल को चले गये ॥ २२ ॥

ततो वितिमिराः सर्वा दिशश्चोपदिशस्तथा।
सुराः सर्पिगणा रामं प्रशशंसुरुदायुधम् ॥ २३॥

सब दिशाएँ और विदिशाएँ पूर्ववत् प्रकाशमान हो गयीं अर्थात् अन्धकार जो छाया हुआ था, वह दूर हो गया। ऋषि और देवता धनुष-बाण-धारो श्रीरामचन्द्र जी की प्रशंसा करने लगे ॥ २३ ॥

30.
[वाल्मीकि रामायण] [बालकाण्ड]
[सप्तसप्ततितमः सर्गः ] [ अर्थात 77 सर्ग ]

गते रामे प्रशान्तात्मा’ रामो दाशरथिर्धनुः ।
वरुणायाप्रमेयाय ददौ हस्ते ससायकम् ॥१॥

विगत क्रोध परशुराम जी के चले जाने के बाद, दशरथनन्दन श्रीराम जी ने अपने हाथ का वाण सहित वह धनुष वरुण जी को धरोहर की तरह सौंप दिया ॥१॥

अभिवाद्य ततो रामो वसिष्ठप्रमुखानृपीन् ।
पितरं विह्वलं दृष्ट्वा प्रोवाच रघुनन्दनः ।। २ ॥

तदनन्तर श्रीरामचन्द्र जी ने वशिष्ठ श्रादि ऋषियों को प्रणाम : किया और महाराज दशरथ को घबड़ाया हुश्रा देख उनसे बोले ॥२॥

जामदग्न्यों गतो रामः प्रयातु चतुरङ्गिणी ।
अयोध्याभिमुखी सेना त्वया नाथेन पालिता ॥ ३ ॥

परशुराम जी चले गये, अव आप अपनी चतुरहिणी सेना को अयोध्यापुरी की ओर चलने की प्राज्ञा दीजिये ॥३॥

सर्ग संख्या 75-77 में वर्णित घटनाक्रम के अनुसार परशुराम जी की बात सुनकर दशरथ जी परशुराम जी याद दिलाते हैं कि किस तरह से उन्होंने इंद्र के सामने उन्होंने अस्त्र और शस्त्र का समर्पण कर हिमालय में तप करने के लिए प्रस्थान किया था। परंतु इसके प्रतिउत्तर में परशुराम स्वयं के हाथ में लिए हुए विष्णु जी के धनुष को दिखाते हुए राम जी को चुनौती देते हैं कि श्रीराम जी शिवजी के धनुष को तो तोड़ दिया, अब जरा इस विष्णु जी के धनुष पर प्रत्यंचा लगा कर दिखलाएं। अगर श्रीराम जी ऐसा करने में सक्षम हो जाते हैं तो परशुराम जी श्रीराम जी से द्वंद्व युद्ध करेंगे।

परशुराम जी आगे बताते है कि एक बार ब्रह्मा जी की माया से शिवजी और विष्णु जी के बीच अपने अपने धनुष को श्रेष्ठ साबित करने के लिए युद्ध हुआ था जिसमे शिवजी हार गए थे। इस बात पर शिवजी ने खिन्न होकर अपने धनुष का त्याग कर दिया था। ये वो ही शिव जी का धनुष था जी जनक जी के पास था और जिसे राम जी ने तोड़ दिया था।

परशुराम जी के हाथ में विष्णु जी का वो हीं विष्णु जी का धनुष था। विष्णु जी के धनुष को दिखला कर वो राम जी को उस धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने और द्वंद्व युद्ध को ललकारने लगे। परशुराम जी से डरकर और राम जी के प्रति अपने पुत्र प्रेम के कारण दशरथ जी परशुराम जी शांत करने के अनगिनत प्रयास करते हैं। जब दशरथ जी के लाख समझाने बुझाने के बाद भी परशुराम जी नहीं मानते तब श्रीराम प्रभु अति क्रुद्ध हो जाते हैं।

वाल्मिकी रामायण में आगे वर्णन है कि परशुराम जी के शांत नहीं होने पर भगवान श्रीराम अत्यंत क्रुद्ध हो जाते हैं और परशुराम जी के ललकारने पर उनके द्वारा लाए गए भगवान विष्णु के धनुष को अपने हाथ में लेकर परशुराम जी द्वारा स्वयं के तपोबल से अर्पित किए गए लोकों को नष्ट कर देते हैं। श्रीराम जी का पराक्रम देख कर सारे लोग श्रीराम जी प्रशंसा करने लगते है। अंत में परशुराम जी के पास भगवान श्रीराम जी के हाथों पराजित होकर उनको पहचान जाते हैं और उनकी प्रशंसा करते हुए हिमालय की ओर लौट जाने का वर्णन आता है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि सीताजी के स्वयंवर स्थल पर ना तो कभी रावण हीं आया था और ना हीं कभी भगवान श्री परशुराम जी और ना हीं कभी भगवान परशुराम जी और लक्ष्मण जी के बीच कोई वाद या विवाद हुआ था। इन तीनो घटनाओं का वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण में कोई भी जिक्र नहीं है ।

अगर संवाद हुआ भी था तो भगवान परशुराम और राजा दशरथ के बीच।अगर विवाद हुआ भी था तो भगवान श्रीराम और भगवान परशुराम जी के बीच और वो भी शादी संपन्न हो जाने के बाद , जब श्रीराम जी मिथिला से अपनी नगरी अयोध्या को लौट रहे थे। बाकी सारी घटनाएं किसी कवि के मन की कोरी कल्पना की उपज मात्र नहीं तो और क्या है?

अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित

1 Like · 1 Comment · 498 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
You may also like:
कोई शुहरत का मेरी है, कोई धन का वारिस
कोई शुहरत का मेरी है, कोई धन का वारिस
Sarfaraz Ahmed Aasee
वो एक ही शख्स दिल से उतरता नहीं
वो एक ही शख्स दिल से उतरता नहीं
श्याम सिंह बिष्ट
शासक सत्ता के भूखे हैं
शासक सत्ता के भूखे हैं
DrLakshman Jha Parimal
दोस्त
दोस्त
Pratibha Pandey
"जब"
Dr. Kishan tandon kranti
2585.पूर्णिका
2585.पूर्णिका
Dr.Khedu Bharti
बोलो!... क्या मैं बोलूं...
बोलो!... क्या मैं बोलूं...
Santosh Soni
गुरु पूर्णिमा आ वर्तमान विद्यालय निरीक्षण आदेश।
गुरु पूर्णिमा आ वर्तमान विद्यालय निरीक्षण आदेश।
Acharya Rama Nand Mandal
*निकला है चाँद द्वार मेरे*
*निकला है चाँद द्वार मेरे*
सुखविंद्र सिंह मनसीरत
* संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ: दैनिक समीक्षा* दिनांक 6 अप्रैल
* संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ: दैनिक समीक्षा* दिनांक 6 अप्रैल
Ravi Prakash
शिक्षक
शिक्षक
Mukesh Kumar Sonkar
बेटी
बेटी
Dinesh Yadav (दिनेश यादव)
🥀*गुरु चरणों की धूलि*🥀
🥀*गुरु चरणों की धूलि*🥀
जूनियर झनक कैलाश अज्ञानी झाँसी
उन पुरानी किताबों में
उन पुरानी किताबों में
Otteri Selvakumar
रिश्तों से अब स्वार्थ की गंध आने लगी है
रिश्तों से अब स्वार्थ की गंध आने लगी है
Bhupendra Rawat
दूसरों का दर्द महसूस करने वाला इंसान ही
दूसरों का दर्द महसूस करने वाला इंसान ही
shabina. Naaz
जिनसे जिंदा हो,उनको कतल न करो
जिनसे जिंदा हो,उनको कतल न करो
सुरेश कुमार चतुर्वेदी
एक न एक दिन मर जाना है यह सब को पता है
एक न एक दिन मर जाना है यह सब को पता है
Ranjeet kumar patre
जीवन
जीवन
Monika Verma
श्रीराम पे बलिहारी
श्रीराम पे बलिहारी
Umesh उमेश शुक्ल Shukla
हे प्रभु !
हे प्रभु !
Shubham Pandey (S P)
अगर न बने नये रिश्ते ,
अगर न बने नये रिश्ते ,
शेखर सिंह
आज की तारीख़ में
आज की तारीख़ में
*Author प्रणय प्रभात*
मैं अक्सर तन्हाई में......बेवफा उसे कह देता हूँ
मैं अक्सर तन्हाई में......बेवफा उसे कह देता हूँ
सिद्धार्थ गोरखपुरी
यूँ ही नही लुभाता,
यूँ ही नही लुभाता,
हिमांशु Kulshrestha
प्यार में बदला नहीं लिया जाता
प्यार में बदला नहीं लिया जाता
Shekhar Chandra Mitra
क्यूँ ख़्वाबो में मिलने की तमन्ना रखते हो
क्यूँ ख़्वाबो में मिलने की तमन्ना रखते हो
'अशांत' शेखर
कतरनों सा बिखरा हुआ, तन यहां
कतरनों सा बिखरा हुआ, तन यहां
Pramila sultan
आदमी के हालात कहां किसी के बस में होते हैं ।
आदमी के हालात कहां किसी के बस में होते हैं ।
sushil sarna
Irritable Bowel Syndrome
Irritable Bowel Syndrome
Tushar Jagawat
Loading...