रावण ने कहा था… …..
रावण ने मन ही मन कहा था
हे सौमित्र
यूँ ज्ञान नहीं मिलता
झुकना पड़ता है
तब जाकर गुरु लेता है संज्ञान में ,
मेरे सिरहाने खड़े हो
यूँ भरे – २ अभिमान से
फिर सोच रहे हो क्यों दशानन
चुपचाप पड़ा ,
देख राम मंद मंद मुस्काते हैं
मौन तोड़ हे लक्ष्मण
अभी वो तेरी भूल बताते हैं ,
बड़े बड़े तूफानों में भी अस्तित्व उसी का बचता है
जो तेज़ हवा के झोकों में झुक जाता है
वो तिनका तो बच जाता है
लेकिन ताड़ धराशायी हो जाता है ,
मैं भी अभिमानी था …देखो मेरा क्या अंत हुआ ?
चार लोक कम्पित होते थे मुझसे
देखो कैसे मैं आज पड़ा
न लंका है , न ऐश्वर्य , न वो दम्भ बचा
इक बनवासी ने कैसा मेरा अंत किया,
नम्र रहोगे जीवन में तो हर सुख मिल जायेगा
ब्रम्हा , विष्णु , शंकर से भी
कुछ ऊपर होता है
वो गुरु है जो भारी त्रिदेवों पर होता है ,
हे शेष
तुम भी स्वयं सर्वज्ञ हो
फिर क्यों तुम एक विजय – दम्भ में छाती चौड़ी
कर इठलाते हो
और देख रहे क्यों अब भी मुझको शत्रु सम ,
अभिमानी था …अभिमानी था तो सब अभिमान नष्ट हुआ
वो देखो सूर्यवंश के कुलदीपक राघव कैसे
शालीन खड़े
मानों मार्तण्ड निज रश्मिकिरणों
को दानव – मानव पे सम प्रेषित कर रहा ,
तो हे सौमित्र
यूँ ज्ञान नहीं मिलता
कुछ तो झुकना पड़ता है |
द्वारा – नेहा ‘आज़ाद’