रावण-कवि संवाद
मत बनाओ पोस्टर मुझपर,
कविताओं की ना बौछार करो,
अरे मैं पड़ा हूँ असमंजस में,
मेरी भी नैया पार करो।
हर साल जलाते हो मुझको,
मैं जीवित कहाँ से आता हूँ,
मैं तो तेरे राम बाण पर,
बहुत बहुत शर्माता हूँ।
वह मर न पाया है मुझको,
मैं हर चौराहे जिंदा हूँ,
जाके देख लो कोर्ट कचहरी,
फाइलों का वाशिंदा हूँ।
तुम बनाते हो कविता मुझपर,
पोस्टर में मुझे दिखाते हो,
जग को झांसा देने खातिर,
हर साल मुझे जलाते हो।
मैंने पूजा था माता जस,
वाटिका में उन्हें बिठाया था,
जरा बता दो मर्यादा नोचने,
क्या होटल मैंने बनाया था?
पूरी इज्जत से पुष्पक में,
अतिथि रूप में लाया था।
क्या मैंने कभी बसों में,
बनमानुष रूप अपनाया था?
बस एक गलती की थी मैंने,
नारी अपहरण को पाला,
पर मैंने राक्षस समाज का,
शीश प्रभु पग में डाला।
बड़ा चलाते हो कलम कवि जी,
खूब दोष गिनाते हो,
नित्य अपहरण कुकृत्यों पर,
क्यूँ ना रोक लगाते हो?
कभी दशहरा कभी दीवाली,
बुराई पर जीत मानते हो,
हो सुरा सुंदरी के आशिक,
असुरों को गलत बताते हो।
मैं तो साधक था भोले का,
चरणों में शीश चढ़ाता था,
ना धर्म नाम पर धंधे कर,
ना अपना महल बनाता था।
मैंने तो अभिमान के खातिर,
सारे शीश कटा डाला,
पर तुममें स्वाभिमान कहाँ,
गिरगिट सा रंग बना डाला।
मैं निर्भीक खड़ा हूँ सम्मुख,
तू चाहे तो संहार करो,
पर अपनी कविताओं से तुम,
अन्तर्रावण पर वार करो।
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अशोक शर्मा,कुशीनगर,उ.प्र.