राम राज्य अब रहा नहीं !!
राम राज्य अब रहा नहीं !!
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राम अयोध्या रही न वैसी, तब जैसे प्रतिवेश नहीं|
राम राज्य में थी यह जैसी, वैसा अब परिवेश नहीं||
हिय में वास नहीं करते तुम,
पाहन में गढ़वा डाला|
मंदिर की तस्वीरों में रख,
शीशे में मढ़वा डाला|
द्वेष तिरोहित है हर मन में,
जला रहे फिर भी रावण|
वाह्य दिखावा राम सदृश है,
अन्तर्मन से निशिचर गण|
कर्म अधर्मी ऐसा करते, किया कभी लंकेश नहीं|
राम राज्य में थी यह जैसी, अब वैसा परिवेश नहीं||१||
राम तुम्हारे आदर्शों को,
भक्त तुम्हारे निगल गए|
लोभ, लालसा के बस होकर,
हिम खण्डों सम पिघल गए|
राम तुम्हारे पदचिन्हों पर,
अब चलना स्वीकार नहीं|
भक्त तुम्हारे हैं लाखो पर,
हनुमत सम व्यवहार नहीं|
बाहर से अब सन्त जो दिखता, मन भीतर दरवेश नहीं|
राम राज्य में थी यह जैसी, अब वैसा परिवेश नहीं||२||
मानवता का धर्म दिया जो,
सबने आज भुला डाला|
श्वेत वसन तन ऊपर लिपटा,
पर सबका मन है काला|
सिया हरण की व्याकुलता है,
मन का संयम टूट रहा|
लखन लाल ही बना दुशासन,
रामप्रिया को लूट रहा|
काम- क्रोध के मद में अन्धे, दया हृदय में लेश नही|
राम राज्य में थी यह जैसी, अब वैसा परिवेश नहीं||३||
मानवता अब करती क्रन्दन,
पल – पल उठती चित्कारे|
छल- बल है अब बना पुरोधा,
नीति – नियम सब हैं हारे|
भरत लखन को ढूँढ़ रहे सब,
भ्राता से निज छले गए|
निज पुत्रों से हुए प्रताड़ित,
दशरथ वन को चले गए|
सेवा- धर्म पड़े सब आहत, लगता कुछ अब शेष नहीं|
राम राज्य में थी यह जैसी, अब वैसा परिवेश नहीं||४||
आओ या फिर कर्म सुधारो,
तभी धर्म स्थापित होगा|
विधर्मी अनयायी जन का,
मान तभी विस्थापित होगा|
राम राज्य निर्वाण के पथ पर,
आकर इसमें प्राण भरो|
वसुधा का संत्रास हरण कर,
जन- जन के तुम त्राण हरो|
नाश करो मन के रावण का, इच्छा और विशेष नहीं|
राम राज्य में थी यह जैसी, अब वैसा परिवेश नहीं||५||
✍️ पं.संजीव शुक्ल ‘सचिन’ ‘
मुसहरवा (मंशानगर)
पश्चिमी चम्पारण,
बिहार