राम ! तुम घट-घट वासी
मुझे पता है राम
कि तुम घट-घट वासी ।
किन्तु हमारी अल्पमति ये
सहते जो एकान्त उदासी ।
माना तुमको पाकर मन
सच्चिदानंद हो जाता है ।
किन्तु तुम्हें पाने का पथ
अति सरल हृदय ही पाता है ।
माया के विभ्रम में भ्रमता
ये मन इतना न सरल रहा ।
सघन स्वजन छाया में भी
न जाने मन क्यों विरल रहा ।
हो रहा शिलामय जड़ ये मन
अब तुम ही प्रभु उद्धार करो ।
जिस तरह अहिल्या तारी थी
वैसे ही मेरे त्रास हरो ।