इमारत बड़ी थी वो
आकाश चूमती थी,
इमारत बड़ी थी वो,
सबके हिस्से की धूप,
रोके खड़ी थी वो।
कोई भी उसके सामने,
टिकता कहाँ कभी,
किस तरह जिंदगी ने,
सर उसका झुका दिया।
ये राम की माया है,
ये राम की मर्ज़ी है,
तिनका उठाकर अर्श पर,
फिर फर्श पर गिरा दिया।
उस राम को इस बात से,
कोई नहीं मतलब,
किस जाति, धर्म, मजहब को,
मानता है तू,
इंसाफ की बारी पर,
कर देंगे वो इन्साफ,
रावण के सारे पुण्य,
पाप उसका खा गया।
(C)@नील पदम्