रामायण: ज्ञानवृष्टि
विश्वविख्यात: श्लोक: महर्षि वाल्मीकी—
“जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी”
(इह अस्ति राष्ट्रे निर्माणे सम्पूर्ण: कड़ी)
एकम् रूपम महर्षि भारद्वाजे, सम्बोधित: राम:—
मित्राणि धन धान्यानि प्रजानां सम्मतानिव ।
जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥
द्वे रूपम देव राम:, सम्बोधित: लक्ष्मण: —
अपि स्वर्णमयी लङ्का न मे लक्ष्मण रोचते ।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥
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* हिन्दी भावार्थ:—
विश्वविख्यात श्लोक रचे महर्षि वाल्मिकी।
“जननी और जन्मभूमि है स्वर्ग से बड़ी।।”
(यही है सम्पूर्ण राष्ट्र निर्माण की कड़ी)
विश्व विख्यात उपरोक्त श्लोक का प्रयोग दो बार हुआ है। दोनों प्रसंगों का संक्षिप्त विवरण हिन्दी में नीचे उल्लेखित है:—
(1.) मित्राणि धन धान्यानि प्रजानां सम्मतानिव ।
जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥
एक जगह महृषि भारद्वाज, प्रभु श्रीराम को सम्बोधित करते हुए यह श्लोक गुनगुनाते हैं। इसका हिन्दी भावार्थ है: “मित्र, भले ही धन्य, धान्य आदि भौतिक वस्तुओं का वसुन्धरा में अत्यधिक सम्मान है। किन्तु हे नरश्रेष्ठ मर्यादा पुरषोत्तम राम ‘माता व मातृभूमि का स्थान ‘स्वर्ग’ (यहाँ समस्त भौतिक व लौकिक सुखों से अभिप्राय:) से भी कहीं ऊँचा है।”
(2.) अपि स्वर्णमयी लङ्का न मे लक्ष्मण रोचते ।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥
दूसरी जगह प्रभु श्रीराम, अपने अनुज लक्ष्मण जी से आचार्य रावण की सोने की लंका को देखकर कहते हैं, “हे भ्राता लक्ष्मण! यद्यपि यह सम्पूर्ण लंका सोने की बनी है, अतः इसमें मेरी लेशमात्र भी रुचि नहीं है। अर्थात ‘माता व मातृभूमि का स्थान ‘स्वर्ग’ (यहाँ सोने की लंका से अभिप्राय:) से भी कहीं ऊँचा है।”