*रामपुर रियासत के कवि सय्यद नवाब जान की फारसी लिपि में हिंदी काव्य कृति “रियाजे जान”(1910 ईसवी)*
रामपुर रियासत के कवि सय्यद नवाब जान की फारसी लिपि में हिंदी काव्य कृति “रियाजे जान”(1910 ईसवी)
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रामपुर रियासत में नवाब हामिद अली ख़ाँ के शासनकाल (1889 से 1930 ईस्वी ) में एक कवि सय्यद नवाब जान जिनका उपनाम “जान” था , हुआ करते थे। आपका हिंदी उर्दू और फारसी तीनों भाषाओं में काव्य रचना कर सकने का अधिकार था। लेकिन आपने 1330 हिजरी वर्ष अर्थात लगभग 1910 ईस्वी में एक हिंदी काव्य “रियाजे जान” लिखा , जिसकी विशेषता यह थी कि आपने उसे फारसी लिपि में लिपिबद्ध किया । हिंदी साहित्य को फारसी लिपि में गिने-चुने साहित्यकारों ने बहुत कम संख्या में काव्य कृतियों के माध्यम से लिखा है।
काव्य रचना का मूल उद्देश्य नवाब साहब से पुरस्कार स्वरूप एक हजार रुपए की धनराशि प्राप्त करना था , ताकि आप अपनी वाँछित तीर्थ यात्रा पर जा सकें। नवाब साहब देवनागरी लिपि से अपरिचित थे । अतः फारसी लिपि में काव्य रचना साहित्यकार की विवशता थी । अन्यथा नवाब साहब न तो उसे पढ़ पाएँगे , न समझ पाएँगे और न ही फिर प्रसन्न हो पाएँगे और इस प्रकार साहित्यकार की पुरस्कार प्राप्ति की इच्छा अधूरी ही रह जाती। फारसी लिपि में हिंदी काव्य रचना की सय्यद नवाब जान कवि की युक्ति काम कर गई । नवाब साहब की प्रशंसा भी उस पुस्तक में कवि ने की थी। इससे भी नवाब साहब निस्संदेह प्रसन्न हुए होंगे । पुरस्कार स्वरूप एक हजार रुपए की धनराशि कवि को प्रदान कर दी गई ।
दुर्भाग्य यह रहा कि पुस्तक की पांडुलिपि रियासत के पुस्तक संग्रहालय में केवल पांडुलिपि के रूप में ही सुरक्षित कर दी गई और हमेशा के लिए अँधेरे में खो गई। कितना अच्छा होता , अगर सौ-पचास रुपए खर्च करके काव्य कृति की कुछ पुस्तकें छपवा दी जातीं, और रियासत के संग्रहालय में पांडुलिपि के साथ-साथ पुस्तकों की भी कुछ प्रतियाँ उपलब्ध होतीं। शायद ही किसी ने “रियाजे जान” की पांडुलिपि को पढ़ा होगा ।
आज भी फारसी लिपि जानने वाले गिने – चुने लोग हैं और फारसी जानकर उसमें लिखित हिंदी भाषा के मर्म को समझ लें, ऐसे लोग तो दुर्लभ ही हैं। परम विदुषी डा. किश्वर सुलताना के माध्यम से यह पांडुलिपि अंधेरे से उजाले में आई और रामपुर रजा लाइब्रेरी फेसबुक पेज दिनांक 26 अप्रैल 2020 पर इसकी जानकारी प्राप्त हुई ।
यहाँ विशेष उल्लेखनीय यह भी है कि केवल पुरस्कार प्राप्ति के लिए कवि ने हिंदी भाषा को अपनाया हो ,ऐसा नहीं है। पांडुलिपि की चर्चा करते हुए यह बताया गया है कि लेखक के अनुसार ” उर्दू में पुरुष की ओर से प्रेम की अभिव्यक्ति होती है… (जबकि हिंदी) भाषा में प्रेम की अभिव्यक्ति नारी की ओर से होती है। नारी अपनी पीड़ा की अभिव्यक्ति किस मीठी जुबान में सुनाती है, यह श्रेय केवल हिंदी भाषा को प्राप्त है।” इससे स्पष्ट हो जाता है कि हिंदी से प्रेम करने वाले और उर्दू तथा फारसी से भी बढ़ कर उसे अभिव्यक्ति की दृष्टि से वरीयता देने वाले कवि आज से सौ साल पहले थे।
पांडुलिपि में एक महत्वपूर्ण उल्लेख “मुस्तफाबाद” का शब्द- प्रयोग है। इससे पता चलता है कि नवाब हामिद अली ख़ाँ के शासनकाल में भी इस शब्द से लगाव चल रहा था।
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लेखक : रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 999 761 5451