*रामपुर के गुमनाम क्रांतिकारी*
रामपुर के गुमनाम क्रांतिकारी
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लेखक :रवि प्रकाश, बाजार सर्राफा ,रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 999761545 1
ई मेल : raviprakashsarraf@gmail.com
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क्रांतिकारियों को न इस बात की इच्छा थी कि उन्हें ऊॅंचे पद मिलें, न वह किसी सुख-सुविधा के आकांक्षी थे । क्रांतिकारियों का तो एक ही ध्येय था कि उनके हृदय में भारत को स्वाधीन कराने की जो आग धधक रही है, उसे किस प्रकार और भी तेज किया जाए और उसकी ऊष्मा से ब्रिटिश हुकूमत को हिला कर रख दिया जाए । रामपुर परतंत्रता काल में एक नवाबी रियासत थी । अखिल भारतीय स्तर पर अंग्रेजों की गुलामी थी। यहॉं की मिट्टी में एक ऐसी बारूदी गंध विद्यमान रहती थी जिसने क्रांतिकारी विचारधारा को पालने में ही लोरी की तरह नौनिहालों को सिखा दिया था ।
सुरेश राम भाई एक ऐसा ही क्रांतिकारी व्यक्तित्व का नाम रहा । जब विद्यार्थी जीवन में आपके हृदय में देश को आजाद कराने की भावना बलवती हो उठी, तब आप ने गॉंधी जी को एक पत्र लिखा और उनसे स्वतंत्रता आंदोलन के लिए अपने आप को समर्पित कर देने की अनुमति मॉंगी । जवाब में गाँधी जी का पोस्टकार्ड सुरेश राम भाई के पास आया । गॉंधी जी ने लिखा कि अभी पढ़ाई पूरी करो, बाद में आंदोलन को देखना । दो वर्ष जैसे-तैसे विश्वविद्यालय में पढ़ते हुए सुरेश राम भाई ने काटे और जैसे ही पढ़ाई समाप्त हुई, यह एम.एससी. गोल्ड मेडलिस्ट नवयुवक देश की आजादी के लिए संघर्ष करता हुआ जेल चला गया । एक बार सवा साल के लिए दूसरी बार छह महीने के लिए । इतिहास के प्रष्ठों पर सुरेश राम भाई एक गुमनाम क्रांतिकारी के रूप में दर्ज हैं। कारण यह कि आपने अपने क्रांतिधर्मी चरित्र को कभी भी कुर्सियों के सौदों में बदलने की आकांक्षा नहीं रखी । देश आजाद हुआ और आप खामोशी के साथ विनोबा भावे के भूदान आंदोलन में लग गए। अपनी जिंदगी को एक बड़े मकसद के लिए खपा देने वाला यह व्यक्तित्व आज कम से कम रामपुर के संदर्भ में तो गुमनाम क्रांतिकारी ही कहा जाएगा ।
सतीश चंद्र गुप्त एडवोकेट का स्मरण भी इसी क्रांतिधर्मी परंपरा में लिया जाना उचित है । आप बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ते थे, लेकिन पढ़ाई से ज्यादा देश को आजाद कराने की भावनाऍं आपके हृदय में हिलोरें मार रही थीं। कांग्रेस और गॉंधीजी आपके हृदय में बस चुके थे । आप कभी उपवास करते थे ,कभी अनशन पर बैठते थे और कभी गॉंव-गॉंव स्वतंत्रता की अलख जगाने के लिए निकल पड़ते थे । अंततः आपको भी देश को आजाद कराने की बलवती इच्छा-शक्ति का दुष्परिणाम भोगना पड़ा । आप की जेल यात्रा 4 अप्रैल 1943 से 13 जुलाई 1945 तक देश की आजादी के लिए लंबे समय तक चली और जब जेल से छूटे तथा देश आजाद हुआ तो आपने अपने आप को पृष्ठभूमि में छुपा लिया । न मंत्री बने, न सांसद और न विधायक । पद-लिप्सा से कोसों दूर रहे। एक बड़ा मकसद देश को आजाद कराने का था । जब यह पूरा हुआ तो खामोशी के साथ आपने जीवन व्यतीत किया ।
क्रांति की यह हृदय में विद्यमान मशाल ही तो थी जिसने प्रोफेसर मुकुट बिहारी लाल को इंग्लैंड में अपने शोध प्रबंध को ठुकरा कर भारत आने के लिए प्रेरित कर दिया । उन्हें डॉक्टरेट की उपाधि न मिलना स्वीकार था किंतु अपने स्वतंत्रता विषयक क्रांतिकारी विचारों में रत्ती-भर भी संशोधन स्वीकार नहीं था । ऐसा क्रांतिधर्मी व्यक्तित्व भला पंडित मदन मोहन मालवीय की पारखी नजरों से छुपा कैसे रहता ? मालवीय जी को समाचार मिला और उन्होंने इस क्रांतिकारी नवयुवक को हृदय से लगा लिया। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में प्राध्यापक के पद के लिए निमंत्रण दिया। प्रोफेसर मुकुट बिहारी लाल रामपुर की गलियों से निकलकर ऐतिहासिक राष्ट्रीय पटल पर अपनी समाजवादी तथा समानता पर आधारित समाज के लिए समर्पित विचारधारा के प्रसार को समर्पित हो गए। राज्यसभा में आपने समाजवादी चिंतन का ओजस्वी प्रतिनिधित्व किया । रामपुर की तमाम क्रांतिकारी गतिविधियों के संचालन में केंद्रीय भूमिका निभाई और जब देश की आजादी के समय रियासतों के भारतीय संघ में विलीनीकरण का अवसर आया तो आचार्य नरेंद्र देव के साथ मिलकर देशभर में इस बात के लिए प्रबल वातावरण तैयार किया कि रियासतों का विलीनीकरण लोकतंत्र तथा मनुष्य की आधारभूत समानता की स्थापना के लिए अत्यंत आवश्यक है।
कुछ लोग ही ऐसे होते हैं जो इतिहास के पटल पर अपने अमिट निशान छोड़ जाते हैं । राम भरोसे लाल ऐसे ही लोगों में से रहे। एक गुमनाम क्रांतिकारी जिसे इतिहास लगभग विस्मृत कर चुका है । 17 अगस्त 1948 को जब रामपुर की रियासती विधानसभा में शासन की ओर से यह प्रस्ताव प्रस्तुत किया गया कि रामपुर रियासत में राजशाही जारी रहनी चाहिए, रियासत बनी रहनी चाहिए और नवाब साहब के प्रति आस्था जरूरी है, तब यह राम भरोसे लाल ही थे जिनकी क्रांतिकारी चेतना ने इस प्रस्ताव का विरोध करने का साहस और सामर्थ्य दिखाया । किला परिसर में हामिद मंजिल के दरबार हाल में खड़े होकर रियासती शासन का विरोध 17 अगस्त 1948 का एक ऐसा क्रांतिधर्मी विस्फोट है ,जिसकी गूँज इतिहास के प्रष्ठों पर आज भी अंकित है । यद्यपि यह कहने में संकोच नहीं है कि यह क्रांतिधर्मिता की महान गाथा गुमनामी के अंधेरे में न जाने कब की खो चुकी है ।
आज ओमकार शरण विद्यार्थी का स्मरण हो आता है । उन जैसा क्रांतिकारी नौजवान भला कौन होगा ? रियासती सरकार ने उन्हें “इनकम टैक्स ऑफिसर” का पद प्रलोभन के तौर पर प्रस्तुत किया था ताकि यह क्रांतिकारी नवयुवक खामोश होकर बैठ जाए तथा रियासती सरकार के रियासत बचाने तथा राजशाही को जारी रखने के मंसूबों के मार्ग में बाधक न बने । मगर वाह रे ओमकार शरण विद्यार्थी ! धन्य है तुम्हारा त्याग ! धन्य है तुम्हारी क्रांतिकारी चेतना ! तुम सब प्रकार के प्रलोभनों से ऊपर उठ गए और तुमने फकीरी का विषपान कर लिया। सर्वस्व को त्याग कर तुम आदर्शों की मशाल जलाने के लिए वास्तविक स्वतंत्रता के अग्निपथ पर चल पड़े । आज इतिहास की गुमनामी में तुम्हारी क्रांतिकारी चेतना खोई हुई है।
अगस्त 1946 में मौलाना अब्दुल वहाब खाँ की अध्यक्षता में रामपुर में नेशनल कांफ्रेंस का गठन हुआ और यह अपने समय का सबसे बड़ा क्रांतिकारी कदम भी साबित हुआ। हामिद गेट के सामने और पान दरीबे में जिसके जलसे हुआ करते थे। कांग्रेस वास्तव में सक्रिय नहीं थी लेकिन नेशनल कान्फ्रेंस के नाम से क्रांतिकारी विचारधारा वाले लोग रियासतों में सक्रिय रहते थे। मौलाना अब्दुल वहाब खाँ और उनका समूह ऐसे ही बहादुर क्रांतिकारियों का समूह था। इसमें राधेश्याम वकील ,देवकीनंदन वकील, नबी रजा खाँ, रामेश्वर शरण बजाज आदि कार्य करते थे । नेशनल कांफ्रेंस की कार्यकारिणी में कृष्ण शरण आर्य, शांति शरण ,शंभूनाथ साइकिल वाले ,नंदन प्रसाद गुप्ता ,यूनुस उर रहमान खाँ, मौलवी अली हसन खाँ, फजले हक खाँ आदि नाम चर्चित रहे । रियासतों में दोहरी गुलामी हुआ करती थी । ऐसे में नेशनल कान्फ्रेंस का काम कांग्रेस की तुलना में ज्यादा कठिन था। क्रांतिकारियों का यह समूह धर्मनिरपेक्षता के आधार पर संघर्षरत था।
अब्दुल गफ्फार खाँ एक ऐसा क्रांतिकारी व्यक्तित्व है, जिसने 1933 में रामपुर में आजादी का जो माहौल बनाया, उसके कारण अभूतपूर्व राजनीतिक चेतना तथा स्वतंत्रता का उजाला रियासत में फैलने लगा। परिणामतः अब्दुल गफ्फार खाँ को रामपुर से निर्वासित कर दिया गया । आपको बरेली में रहना पड़ा । वहाँ आपने “अंजुमन मुहाजिरीन” संस्था का गठन 1933 में किया । आप के दो पुत्र अब्दुल हनीफ खाँ और अब्दुल हमीद खाँ आजादी के लिए संघर्ष करते हुए जेल में रहे लेकिन सब प्रकार से यातनाएं सहने के बाद भी क्रांति के पद से विचलन स्वीकार नहीं किया।
शांति शरण एक ऐसे क्रांतिकारी व्यक्ति का नाम रहा जिन्होंने रामपुर में गुलामी के दौर में “स्वदेशी भंडार” खोला और चार साल तक भारी परेशानियाँ सहकर भी उसे चलाया ।
देवीदयाल गर्ग अपनी क्रांतिकारी चेतना के कारण रामपुर में एक अंग्रेज से उलझ गए । लिहाजा बेंत बरसाए गए। हवालात की हवा खाई । नेशनल कांफ्रेंस के बैनर तले पोस्टर चिपकाने और बाँटने का काम जान हथेली पर रखकर किया ।
कल्याण कुमार जैन शशि ने केवल कविताओं से क्रांतिकारी चेतना नहीं फैलाई बल्कि 1930 – 31 के आसपास जब खादी पहनकर श्रीनगर (कश्मीर) की सड़कों पर घूम रहे थे तो अंग्रेज पुलिस की निगाह में आ गए और कई महीने जेल में रहना पड़ा मगर अपने क्रांतिकारी तेवर कभी कम नहीं किए।
क्रांतिकारी चेतना के धनी रामपुर के ही स्वामी शरण कपूर 1942 से 1944 तक इलाहाबाद में कांग्रेस का चंदा इकट्ठा करते थे ।आनंद भवन में जाकर जमा कर आते थे। जवाहरलाल नेहरू से अक्सर मुलाकात होती रहती थी ।
क्रांति के पथ को अंगीकृत करने वाले यह नौजवान हृदय में भारत माता की सेवा का मिशन लेकर आगे बढ़े तथा सब कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करते हुए देश को आजाद करा कर ही इन्होंने चैन की सॉंस ली । उसके बाद गुमनामी के अंधेरे में खो जाना इन्हें स्वीकार था। वास्तव में इनका मिशन देश की आजादी था । इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं । ऐसे अमर प्रेरणादायक क्रांतिकारी व्यक्तित्वों को शत-शत नमन
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(नोट : यह लेख एक दर्जन से अधिक स्वतंत्रता सेनानियों से लेखक रवि प्रकाश द्वारा भेंट वार्ता के पश्चात तैयार किया गया है )