रामपुर का इतिहास (पुस्तक समीक्षा)
पुस्तक समीक्षा
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रामपुर रियासत का अंतिम दौर
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पुस्तक का नाम : रामपुर का इतिहास (1930 ईस्वी से 1949 ईस्वी तक)
लेखक : शौकत अली खाँ एडवोकेट
प्रकाशक : रामपुर रजा लाइब्रेरी ,हामिद मंजिल ,रामपुर (उत्तर प्रदेश)
प्रकाशन का वर्ष : सन 2009 ईस्वी
मूल्य : ₹700
कुल पृष्ठ संख्या : 596
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समीक्षक : रवि प्रकाश , बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451
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इतिहास लेखन का कार्य सरल नहीं होता। इसके लिए गहन अध्ययन ,कठोर परिश्रम, व्यापक और संतुलित दृष्टिकोण तथा निष्पक्ष चेतना की आवश्यकता होती है । एक भी कार्य में कमी रह जाने पर इतिहास-लेखन बिखर जाता है और अपनी पूर्णता को प्राप्त नहीं कर पाता । केवल वह ही इतिहास-लेखक सफल हो पाते हैं जो न तो किसी को खुश करने के लिए लिखते हैं और न किसी से भयभीत होते हैं । श्री शौकत अली खाँ एडवोकेट ने कुछ इसी उन्मुक्त अंदाज में अद्भुत रीति से “रामपुर का इतिहास” पुस्तक लिखी है । निष्पक्षता की कसौटी पर इसका कोई जवाब नहीं है ।
पुस्तक नवाब रजा अली खाँ के 20 जून 1930 को रामपुर की रियासत का शासन-भार सँभालने से लेकर 30 जून 1949 तक जबकि रामपुर रियासत का पूर्ण रूप से विलीनीकरण भारतीय संघ में हो गया ,उस कालखंड का इतिहास संजोए हुए हैं । यह कालखंड न केवल रामपुर रियासत की दृष्टि से बल्कि संपूर्ण भारत में गहरे उथल-पुथल का दौर रहा था। रियासतें अस्ताचल की ओर जा रही थीं तथा अंततोगत्वा उन्हें अपने अस्तित्व को खोना पड़ा । इस दौर में रियासतों में भारी असंतोष शासन के प्रति देखने में आया। लेखक ने उन सब का भली-भांति विवरण अपनी पुस्तक में प्रस्तुत किया है । इस तरह से यह रामपुर रियासत में जन असंतोष तथा जनता की प्रजातांत्रिक भावनाओं की अभिव्यक्ति का भी इतिहास बन गया है ।
रामपुर रजा लाइब्रेरी के तत्कालीन विशेष कार्याधिकारी वकार उल हसन सिद्दीकी की प्रस्तावना दिनांक 24 जून 2002 तथा परिशिष्ट पढ़कर यह पता चलता है कि यह पुस्तक प्रारंभ में “तारीख-ए- रामपुर” के नाम से उर्दू में प्रकाशित हुई तथा बाद में इसका हिंदी संस्करण सामने आया। श्री शौकत अली खाँ एडवोकेट हिंदी और उर्दू दोनों पर समान अधिकार रखते हैं। इसलिए हिंदी संस्करण कहीं भी अनुवाद के भार से बोझिल नहीं हुआ है । भाषा की दृष्टि से हिंदी का प्रवाह मुहावरेदार है और पाठकों को अपने आकर्षण से बाँधकर चलता है।
पुस्तक चालीस अध्यायों में विभाजित है । प्रारंभिक प्रष्ठों में रुहेलखंड और रियासत रामपुर का संक्षिप्त इतिहास है । 26 अगस्त 1930 को नवाब रजा अली खाँ की ताजपोशी का आँखों देखा वर्णन अध्याय चार में है, जिसके लिए लेखक ने “रिमेंबरेंस ऑफ डेज पास्ट” पुस्तक में श्रीमती जहाँ आरा हबीबुल्लाह (राजमाता रफत जमानी बेगम की छोटी बहन) के लिखित संदर्भ को गरिमामय रीति से उद्धृत करके इतिहास का अभूतपूर्व दृश्य पाठकों के सामने उपस्थित कर दिया है। राजसी वैभव का ऐसा आँखों देखा हाल शायद ही कहीं वर्णित हो। नवाबी दौर का स्मरण अपने आप में बहुत दिलचस्प चीज है ।
अध्याय छह में “नवाब रजा अली खां के शासनकाल का आरंभ” शीर्षक से रियासत में लगने वाले दरबार में पधारने वाले दरबारियों के वस्त्रों के बारे में बताया गया है। जून 1931 के इस फरमान के अनुसार “सफेद चूड़ीदार पाजामा और स्टीपनेट लेदर पंप या जूते सभी दरबारी पहनेंगे … गर्मी के मौसम में सफेद रेशम की अचकन और सर्दी के मौसम में स्याह सर्ज की अचकन होना चाहिए …दरबार के समस्त शुरका ,आगंतुक साफा पहनें और पेटी लगाएँ।(पृष्ठ 90 – 91)
अध्याय 10 , 11 और 12 महत्वपूर्ण हैं। इनमें अंजुमन मुहाजिरीन का आंदोलन, रामपुर का प्रथम राजनीतिक दल अंजुमन खुद्दाम ए वतन तथा भूखा पार्टी और कोतवाली कांड नाम से जनता के असंतोष को विस्तार से वर्णन किया गया है । जन- आक्रोश तथा रियासती सरकार द्वारा उस पर प्रतिक्रिया को लेखक ने इस शब्दों में लिखा है : “अंततः हालात के और विषम हो जाने पर राजा और प्रजा उत्पीड़क और उत्पीड़ित का प्रतीक बन गए ।”(प्रष्ठ 156)
मुहाजिरीन से तात्पर्य उन लोगों से था जो रामपुर में रहकर आंदोलन नहीं कर पा रहे थे । लेखक के शब्दों में “रामपुर से हिजरत (पलायन )करने वाले बरेली में एकत्र हुए और बरेली के मौलवी अजीज अहमद खाँ एडवोकेट की संरक्षकता में अगस्त 1933 में एक संगठन अंजुमन मुहाजिरीन रामपुर(रिफ्यूजीस एसोसिएशन रामपुर) बनाई ।”(पृष्ठ 159)
रामपुर का प्रथम राजनीतिक दल “अंजुमन खुद्दामे वतन” की स्थापना पर पर्याप्त प्रकाश अध्याय ग्यारह के माध्यम से डाला गया है । लेखक ने लिखा है कि 27 सितंबर 1933 को रामपुर में “अंजुमन खुद्दामे वतन” की स्थापना हुई जिसके अध्यक्ष मौलाना अब्दुल वहाब खाँ बनाए गए। बेरोजगारी तथा लोकतंत्र की स्थापना के मुद्दों पर संगठन के क्रियाकलापों का वर्णन पुस्तक में विस्तार से मिलता है।
रियासत रामपुर में सुधारात्मक उपाय, कुरीति उन्मूलन ,उत्तरदायी वैधानिक शासन का आंदोलन ,नेशनल लीग आंदोलन ,अली बंधु ,द्वितीय विश्व युद्ध ,नई विधानसभा आदि विभिन्न अध्यायों के माध्यम से रियासत में जनता और राजशाही के बीच लुकाछिपी के खेल को लेखक ने अपनी रोचक भाषा-शैली में ऐतिहासिक दस्तावेजों के साथ प्रस्तुत किया है । प्रामाणिक तथ्यों के आधार पर यह इतिहास-लेखन का कार्य बड़े आराम से आगे बढ़ा है ।
“किसान आंदोलन 1946” पर अध्याय 28 आधारित है तथा अध्याय 29 में नेशनल कांफ्रेंस की स्थापना का वर्णन हो रहा है। रामपुर रियासत में कांग्रेश सीधे तौर पर कार्य नहीं कर रही थी । लेखक के शब्दों में: “अन्य रियासतों की तरह रामपुर स्टेट में भी कांग्रेस की कोई शाखा नहीं थी लेकिन सैद्धांतिक दृष्टि से नेशनल कान्फ्रेंस रामपुर में कांग्रेस का विकल्प थी।”(प्रष्ठ 340)
स्वतंत्रता प्राप्ति के समय अथवा यूं कहें कि बँटवारे के समय रामपुर में जो आगजनी तथा मार्शल-लॉ लगने की भयावह घटनाएं हुई थीं ,उन पर लेखक ने अध्याय 30 ,31 तथा 32 के माध्यम से प्रकाश डाला है।1947 में रामपुर में मुस्लिम कान्फ्रेंस के संगठन को लेखक ने “लीगी विचारधारा” का नाम दिया।( पृष्ठ 346) उसने मुस्लिम कॉन्फ्रेंस को नापसंद किया है।
1947 में मुस्लिम कॉन्फ्रेंस पर लेखक की तथ्यात्मक टिप्पणी इतिहास का एक परिदृश्य हमारे सामने सटीक रूप से रख सकती है। लेखक के शब्दों में : “मुस्लिम संप्रदाय में मुस्लिम कान्फ्रेंस की लोकप्रियता बढ़ने लगी। मुस्लिम कॉन्फ्रेंस ने कई हजार हस्ताक्षरों से नवाब रामपुर को एक ज्ञापन दिया और माँग की कि रियासत रामपुर को पाकिस्तान में शामिल किया जाए । ” (पृष्ठ 347)
रामपुर में पुरानी तहसील का दफ्तर जलने की घटना 4 अगस्त 1947 को हुई थी। उत्पात 4 अगस्त 1947 ईस्वी शीर्षक से लेखक ने अध्याय 31 का आरंभ इन शब्दों से किया है : “मुस्लिम कॉन्फ्रेंस ने 2 अगस्त 1947 ईस्वी को जामा मस्जिद रामपुर में 3 बजे दिन सार्वजनिक सभा कराने की घोषणा की।”( पृष्ठ 358)
लेखक ने अपनी पुस्तक में “मुस्लिम कॉन्फ्रेंस” को “आपराधिक तत्व और संदिग्ध चरित्र के लोग” बताया है ।(पृष्ठ 346) उससे तथा उसकी विचारधारा से लेखक को गहरा विरोध है ।
लेखक ने 4 अगस्त 1947 के उपद्रव के कारणों का गहराई से अध्ययन किया तथा यह निष्कर्ष निकाला कि ” शासक तंत्र की संरक्षकता और राजघराने का आंतरिक षड्यंत्र ही 4 अगस्त 1947 के उत्पात के प्रेरक थे। रामपुरी जनता का यह आक्रोश रियासत के शासक और शासन तंत्र के विरुद्ध था । पाकिस्तान के पक्ष या समर्थन में नहीं था ।” (पृष्ठ 388)
अपने तर्क के समर्थन में लेखक ने तत्कालीन रियासती सीनियर पुलिस सुपरिंटेंडेंट श्री अब्दुल रहमान खाँ के विचार तथा युवराज मुर्तजा अली खाँ के पत्र को उद्धृत किया है। इससे लेखक के निष्कर्षों की प्रमाणिकता बहुत बढ़ गई है । (पृष्ठ 380)
पुस्तक में नवाब रजा अली खाँ के शासनकाल में रामपुर में औद्योगिक विकास तथा शिक्षा संस्थाओं की स्थापना के साथ- साथ धार्मिक सद्भावना को बढ़ाने वाले क्रियाकलापों पर अनेक अध्यायों के माध्यम से प्रकाश डाला गया है ।
रामपुर में “गाँधी समाधि” की स्थापना पर एक पूरा अध्याय है।
” स्टेट असेंबली 1948 और उत्तरदाई वैधानिक शासन” शीर्षक से अध्याय 34 लिखित है । इसमें स्वाधीनता के उपरांत रामपुर में विधानसभा के गठन के प्रयासों का विस्तार से वर्णन है तथा अगस्त 1948 में नवगठित विधानसभा में रामपुर रियासत के स्वतंत्र अस्तित्व को बनाए रखने का प्रस्ताव पारित किए जाने का वर्णन किया गया है । लेखक ने अपनी निष्पक्षता की नीति के अंतर्गत जहाँ एक ओर यह लिखा है कि : ” किसी ने प्रस्ताव का विरोध नहीं किया और प्रस्ताव सर्वसम्मति से मंजूर करार दे दिया गया । ” वहीं दूसरी ओर “रामपुर के रत्न” पुस्तक के प्रष्ठ तिरेपन के हवाले से राम भरोसे लाल को उपरोक्त प्रस्ताव का विरोध करने का दावा प्रस्तुत करने वाला बताया है।( प्रष्ठ 408) यह सब प्रवृतियाँ घटनाक्रम को व्यापक दृष्टिकोण से तथा विविध आयामों को साथ लेकर चलने की लेखक की खुली और संतुलित चेतना की परिचायक हैं।
रियासत रामपुर का विलय पुस्तक का संभवतः सर्वाधिक आकर्षक अध्याय कहा जा सकता है ।लेखक को इसे लिखते समय न कोई लोभ था और न भय। उसने लिखा है कि जहाँ बहुत से लोग “रामपुर की विशेष हैसियत बरकरार रखने पर जोर” देते थे( पृष्ठ 412) वहीं यह विलय “रियासत के शासक के लिए अप्रत्याशित हितकारी सिद्ध हुआ । विलय के समय रियासत का खजाना बिल्कुल खाली था । किले और उसके इमामबाड़े के तमाम जवाहरात , कीमती और दुर्लभ चीजें और अद्भुत व अप्राप्य सामान हटा लिया गया था ।” (पृष्ठ 432 – 433)
पुस्तक के अंत में पचास से अधिक व्यक्तियों के जीवन-वृत्तांत (किसी पर छोटे और किसी के विस्तार लिए हुए )प्रस्तुत करके लेखक ने पुस्तक को कई गुना मूल्यवान बना दिया है । इन सब में लेखक के परिश्रम की प्रशंसा किए बिना नहीं रहा जा सकता । उसने जिस बुद्धि-चातुर्य के साथ व्यक्तित्वों के सजीव चित्र प्रस्तुत किए हैं ,वह अपने आप में मौलिकता लिए हुए हैं।लेखक ने एक सौ के लगभग समाचार पत्र – पत्रिकाओं ,पुस्तकों तथा दस्तावेजों को संदर्भ के रूप में प्रयोग किए जाने की सूची दी है। प्रत्येक अध्याय में दर्जनों बार अनेक संदर्भ ग्रंथों के उद्धरणों से पुस्तक अपनी प्रामाणिकता की स्वर्णिम आभा असंदिग्ध रूप से प्रत्येक पृष्ठ पर बिखेर रही है । संक्षेप में “रामपुर का इतिहास” शौकत अली खाँ एडवोकेट द्वारा लिखित केवल एक शोध-प्रबंध कहना सही नहीं होगा । यह वास्तव में कई शोध-प्रबंध तैयार करने की मेहनत के बराबर है । पुस्तक अद्भुत रूप से प्रशंसा के योग्य है।