रानगिर की हवा में शामिल हैं दक्षकन्या की स्मृतियाँ
दिव्य-कन्या बन गई पाषाण-प्रतिमा-
तीन रूपों में होते हैं हरसिद्धि के दर्शन
रानगिर की फ़िज़ा में घुली हुई हैं दक्षकन्या सती की स्मृतियाँ ््
द्वारा-ईश्वर दयाल गोस्वामी ।
मध्यप्रदेश के सागर जिला की रहली तहसील का छोटा सा पहाड़ी गाँव रानगिर न केवल सुरम्य वन ,सुंदर पर्वत श्रृंखलाओं और कलकल करती देहार नदी की प्राकृतिक सुंदरता के लिए जाना जाता है, बल्कि- यह गाँव दक्षप्रजापति की पुत्री और भगवान शिव की पत्नी सती की स्मृतियों को भी अपनी फ़िज़ा में घोले हुए है ।
रान एक देशज-शब्द है जो लोक-व्यवहार में हिंदी के जंघा और संस्कृत के ऊरू शब्दों का समानार्थी है ।
जनश्रुति के अनुसार जब सती ने यज्ञ-कुण्ड में कूदकर अपना देह-त्याग कर दिया था तो उनके शरीर के 52 खण्ड हो गए थे जो पवनदेव द्वारा भारत के विभिन्न 52 स्थलों पर गिरा दिए गए थे, ये सभी स्थल आज भी भारतीय धर्म मनीषा में 52 शक्तिपीठ के नाम से विख्यात हैं। कदाचित् लोगों का मानना है कि- यहाँ सती की रानें अर्थात् जंघाएँ गिरी थीं इसलिए इस स्थान का नाम रानगिर पड़ा ।
इस धार्मिक स्थल में पुराण-प्रसिद्ध मां हरसिद्धि का मंदिर है । मंदिर के परकोटे का प्रवेशद्वार पूर्व दिशा में है, जिससे कुछ सीढ़ियां उतरकर हम मंदिर की परिधि में पहुंचते हैं । इस धार्मिक स्थल तक जाने के दो मार्ग हैं सागर शहर से दक्षिण में झांसी-लखनादौन राष्ट्रीयकृत राजमार्ग क्र.-26 पर 24 कि.मी. चलकर तिराहे से पूर्व में 8 कि.मी. पक्की सड़क से आप सीधे मंदिर पहुंच जाएंगे,
रहली से सागर मार्ग पर 8 कि.मी. चलकर पांच मील से दक्षिण में पक्की सड़क से 12 कि.मी. चलेंगे तो सीधे मंदिर ही पहुंचेंगे ।
रहस्यमयी अनगढ़-प्रतिमा —
रानगिर में विराजमान मां हरसिद्धि की प्रतिमा देखने में अनगढ़ प्रतीत होती है यानि- इसे किसी शिल्पी ने नहीं गढ़ा अन्यथा यह अधिक सुंदर और सुडौल होती और न ही किसी पुरोहित ने इस प्रतिमा की प्राण-प्रतिष्ठा की अन्यथा यह भूमितल से ऊंचे मंदिर में ऊंची वेदिका पर विराजमान होती जबकि- यह प्रतिमा भूमितल से नीचे विराजमान है । वस्तुतः कन्या रूप धारिणी यह प्रतिमा ऐंसे दृष्टिगोचर होती है कि कोई कन्या यहां खड़ी-खड़ी पाषण में रूपांतरित हो गई हो । एक किंवदंती भी है कि रानगिर में एक अहीर था जो दुर्गा का परम भक्त था उसकी नन्हीं बेटी जंगल में रोज़ गाय-भैंस चराने जाती थी जहाँ पर उसे एक कन्या रोज़ भोजन भी कराती थी और चांदी के सिक्के भी देती थी ।यह बात बिटिया रोज़ अपने पिता को सुनाती थी । एकदिन झुरमुट में छिपकर अहीर ने देखा कि एक दिव्य कन्या बिटिया को भोजन करा रही है तो वह समझ गया कि यह तो साक्षात जगदम्बा हैं जैसे ही अहीर दर्शन के लिए आगे बढ़ा तो कन्या अदृश्य हो गई और उसके बाद वहां यह अनगढ़ पाषाण प्रतिमा प्रकट हो गई और इसके बाद इसी अहीर ने इस प्रतिमा पर छाया प्रबंध कराया तब से प्रतिमा आज भी उसी स्थान पर विराजमान है ।
अन्य जनश्रुतियां –
जनश्रुतियां यह भी बताती हैं कि- शिवभक्त रावण ने इस पर्वत पर घोर तपस्या की फलस्वरूप इस स्थान का नाम रावणगिरि रखा गया जो कालांतर में संक्षिप्त होकर रानगिर बन गया । किंतु पुराण-पुरुष भगवान राम ने भी वनवास के समय इस पर्वत पर अपने चरण रखें हों और इस पर्वत का नाम रामगिरि रखा गया हो जो अपभ्रंश स्वरूप आज का रानगिर बन गया हो ऐंसा भी संभव प्रतीत होता है क्योंकि इस पर्वत के समीप स्थित एक गाँव आज भी रामपुर के नाम से जाना जाता है ।
मंदिर का निर्माण-काल :-
वैसे तो मंदिर निर्माण काल के स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलते किंतु सन् 1726 ईस्वी में इस पर्वत पर महाराजा छत्रसाल और धामोनी के फ़ौज़दार ख़ालिक के बीच युद्ध हुआ था यद्यपि महाराजा छत्रसाल ने सागर जिला पर अनेक बार आक्रमण किया जिसका विवरण लालकवि ने अपने ग्रंथ छत्रप्रकाश में इस प्रकार किया है –
“वहाँ तै फेरी रानगिर लाई , ख़ालिक चमूं तहौं चलि आई,
उमड़ि रानगिर में रन कीन्हों,ख़ालिक चालि मान मैं दीन्हौं”
इस लड़ाई में महाराजा छत्रसाल विजयी हुए थे तो हो सकता है रानगिर की महिमा से प्रभावित होकर उन्होंने ही मंदिर का निर्माण करवाया हो पर यह मूलतः अनुमान ही है ।
दुर्ग-शैली में बना है भव्य मंदिर :-
मंदिर का निर्माण दुर्ग-शैली में किया गया है बाहरी परकोटे से चौकोर बरामदा जोड़ा गया है जिसकी छत पर चढ़कर ऊपर ही ऊपर मंदिर की परिक्रमा की जा सकती है ।
नवीं देवी हैं हरसिद्धि :-
दुर्गा सप्तशती में दुर्गा कवच के आधार पर स्वयं ब्रह्मा जी ऋषियों को नवदुर्गा के नामों का उल्लेख करते हुए कहते है कि-
“प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी ।
तृतीयं चंद्रघण्टेति, कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ।
पंचमं स्कंदमातेति,षष्ठं कात्यायनीति च ,
सप्तमं कालरात्रीति,महागौरीति चाष्टमम् ।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा प्रकीर्तिताः।।
अर्थात् नवीं देवी सिद्धिदात्री भक्तों की मनोकामनाएं सिद्ध करने बाली देवी ही रानगिर में हरसिद्धि के रूप में विराजमान हैं ।
तीन रूपों में दर्शन देती हैं मातेश्वरी :-
यह मात्र जनश्रुति ही नहीं है मेरा प्रत्यक्ष अनुभव भी है
कि रानगिर की यह अनगढ़ प्रतिमा आज भी अपने भक्तों को प्रातःकाल कन्या, मध्याह्नकाल युवती और सांध्यकाल में वृद्धा के रूप में दर्शन देती हैं ।
नरबलि और पशुबलि का पुरातन प्रमाण :-
वैसे मंदिर के अधिक पुरातन न होने के बाबज़ूद भी इस स्थान के पुरातन और सिद्ध होने के प्रमाण अवश्य मिलते हैं यहाँ पहले मंदिर दूर जंगल में भक्त अपनी मुराद पूरी होने पर पशुबलि देते थे। प्रसिद्ध गौभक्त रामचन्द्र शर्मा”वीर”ने 1930 से 1940 के बीच इस स्थल की तीन बार यात्रा कर विशाल जनांदोलन खड़ा करके पशुबलि प्रथा को समाप्त कराया था जिसका उल्लेख उन्होंने अपनी पुस्तक “विकटयात्रा” में भी किया है । नरबलि के ठोस प्रमाण तो अब यहाँ नहीं मिलते पर अभी भी यहाँ होने बाली पुरातन नरबलि की चर्चा जनश्रुतियों में हो ही जाती है ।
किन्नर लोक का अवगाहन :-
इस स्थल तक जाने बाले दोनों मार्गों के किराने सागौन, तेंदू और पलाश के सघन वनों के साथ कहीं-कहीं पर आम,जामुन और आंवले के फलदार वृक्षों के बीच संयोग से वामपंथ में बहती हिमधवल सलिला देहार नदी,उत्तर में गौरीदांत पर्वत के नतोन्नत शिखर (इनके बारे में जनश्रुति है कि-इन शिखरों पर सती के दांत गिरे थे इसलिए इस पर्वत का नाम गौरीदांत पड़ा)
पूर्व में विशाल सरोवर , पश्चिम में रानगिर गाँव के लिपे-पुते, कच्चे-पक्के घरों का नयनाभिराम दृश्य निश्चित ही किन्नर लोक का अवगाहन करता है ।
चैत्र नवरात्रि का मेला :-
मध्यप्रदेश का प्रसिद्ध तीर्थ होने के कारण यहाँ प्रतिवर्ष चैत्र शुक्ल पंचमी से चैत्र शुक्ल एकादशी तक विशाल मेले का आयोजन भी होता है जिसमें सुदूर प्रांतों से भी श्रद्धालुओं का आवागमन होता है।