*राधे राधे प्रिया प्रिया …श्री राधे राधे प्रिया प्रिया*
राधे राधे प्रिया प्रिया …श्री राधे राधे प्रिया प्रिया
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आज का दिन भागवत कथा में रासलीला प्रसंग के नाम रहा । रासलीला प्रसंग भागवत का प्राण है और उसमें भी गोपी-गीत उस प्राण तत्व का मर्म है।
मंदिर वाली गली ,रामपुर में भागवत कथा कहते हुए कथा वाचक श्री राजेंद्र प्रसाद पांडेय भावुक हो गए । आपने गोपी शब्द का विशुद्ध अर्थ श्रोताओं के सम्मुख रखा और कहा कि गो का तात्पर्य इंद्रियाँ है और पी का तात्पर्य इंद्रियों को श्री कृष्ण के भक्ति-रस को पीने की लालसा है । इंद्रियों को जिन्होंने श्री कृष्ण के भक्ति रस के पान की लालसा में समर्पित कर दिया है ,वह गोपी है ।
श्री कृष्ण के आकर्षण में ब्रज की गोपियाँ बाँसुरी की आवाज सुनते ही दौड़ी चली जाती है। यह अतींद्रिय प्रेम का दृश्य है। कोई गोपी घर में गोबर से जमीन लीप रही है और गोबर सने हाथ से ही दौड़ी चली जाती है । किसी ने आधा वस्त्र पहना है और आधा वस्त्र हवा में उड़ता हुआ रह जाता है और गोपी वंशी की धुन पर नाचती हुई घर से चली जाती है।
यमुना का तट है…. श्वेत और श्याम दोनों रंग की बालू (रेत) बिखरी हुई है। शरद पूर्णिमा के चंद्रमा का प्रकाश उस रेत को और भी महिमा प्रदान कर रहा है । जिस तरह वृंदावन में जब हम निधिवन को जाते हैं और वहाँ की झाड़ियों के दर्शन करते हैं तो वह झाड़ियाँ न केवल एक दूसरे के साथ संयुक्त रुप से आलिंगनबद्ध नजर आती हैं बल्कि उनके पत्ते भी कुछ हरे और कुछ श्याम वर्ण के अपनी छटा बिखेर रहे हैं।
कथावाचक महोदय श्रोताओं को यमुना के तट पर बिठा देते हैं और उस दृश्य को ताजा कर देते हैं जब शुकदेव जी महाराज परीक्षित को भागवत सुना रहे थे। जिसने रासलीला को वास्तविक अर्थों में ग्रहण कर लिया, वह सब प्रकार की इंद्रियों के लोभ और मोह से मुक्त हो जाता है। कथावाचक महोदय ने श्रोताओं को बताया कि यह एक अद्भुत लीला है क्योंकि इसमें हर गोपी यह महसूस कर रही है कि कृष्ण उसके साथ नृत्य कर रहे हैं । हर गोपी को कृष्ण की प्राप्ति होती है । वह परमात्मा अपने अंश रूप में इस संसार के प्रत्येक प्राणी में उपस्थित हैं। बस हमारे गोपी बनकर गोप-भाव से कृष्ण रूप में विचरण करने की देर है । उस महामिलन के लिए तनिक भी देर नहीं लगने वाली है।
रासलीला के लिए कृष्ण हाथ में बाँसुरी लेकर यमुना के तट पर मधुर धुन छेड़ देते हैं । कोई शब्द नहीं ,कोई बोल नहीं ,कोई भाषा नहीं अर्थात प्रभु भाषा से ऊपर एक भाव-रूप में उपस्थित हो जाते हैं । बाँसुरी की धुन श्री राधा श्री राधा श्री राधा का गान करती है। वह बाँसुरी वायुमंडल में राधे राधे राधे राधे भाव का उच्चारण करती है । उसकी लय और तरंग राधे राधे प्रिया प्रिया की गूँज चारों तरफ फैला देती है । संपूर्ण सृष्टि उस मधुर स्वर में मुक्त हो जाती है । इन क्षणों में श्रंगार कहाँ रहता है ? किसी गोपी को श्रंगार के साथ बन-सँवर के साथ रासलीला स्थल पर आने की सुधबुध ही नहीं रहती । वह श्रंगार-भाव को घर पर छोड़ कर केवल आत्मतत्व को संग लेकर रासलीला स्थल पर अपनी उपस्थिति दर्ज करती है । यह अद्भुत रासलीला है। जो व्यक्ति को विषयों और इंद्रियों की वासनाओं के पार ले जाती है ,वह रासलीला है । जिसका विषय-आसक्त प्राणी आनंद नहीं उठा सकता ,क्योंकि विषयासक्त को भगवान् के सगुण रूप का दर्शन नहीं होता ।
यह मुरली की अद्भुत ध्वनि है जो गोपियों को अनहद-नाद की तुरिया-अवस्था की प्राप्ति करा देती है। महाराज श्री श्रोताओं को बताते हैं कि रासलीला को एक क्षण के लिए भी वासना की दृष्टि से मत देख लेना क्योंकि वहाँ कामदेव को भस्म करने वाले भगवान शंकर की उपस्थिति दर्ज है । भगवान के परम-रस के सागर को पीने और पिलाने की कला का नाम ही रासलीला है ।
भगवान शंकर अस्सी गज का लहंगा पहनकर रासलीला में उपस्थित हैं, क्योंकि यह रासलीला शरीर से ऊपर उठकर ह्रदय ,मन और विषय विकारों से पार जाने की यात्रा है । स्त्रियों को वस्त्रों की मर्यादा का बोध कराते हुए महाराज श्री ने इस बिंदु पर उपदेश दिया कि मर्यादा शरीर को ढककर चलने में ही है । यथासंभव वस्त्र ऐसे होने चाहिए जो शालीन और सुरुचि का बोध करा सकें । यद्यपि सबको अपने मनोनुकूल वस्त्र पहनने की स्वतंत्रता है लेकिन हमें स्वेच्छा से उन वस्त्रों को पहनना चाहिए जो समाज को शांत मनःस्थिति की ओर ले जा सके ।
गोपी गीत में उन्नीस श्लोक हैं । महाराज श्री ने एक श्लोक का वाचन भी किया और कहा कि शुकदेव जी ने गंगा के किनारे इन उन्नीस श्लोकों को परीक्षित जी को सुनाया था । यह श्लोक गोपियों को गोविंद से मिलाने की कला सिखाने वाले श्लोक हैं । यह श्लोक गोपियों की श्री कृष्ण की प्राप्ति की अतीव लालसा को प्रतिबिंबित करते हैं । गोपियाँ सर्वत्र कृष्ण को पुकारती हैं और कहती हैं “माधव तुम कहाँ हो ? “मजे की बात यह है कि कृष्ण किसी गोपी का दुपट्टा अथवा चुनरी ओढ़ कर छुप जाते हैं और नजर में नहीं आते । लेकिन जिसको श्री कृष्ण की प्राप्ति की अभिलाषा है ,वह कृष्ण को ढूँढ लेती हैं और मिलन की हर बाधा को पार कर जाती हैं। कृष्ण दृष्टि से ओझल रहते हैं लेकिन सतर्कता पूर्वक जब व्यक्ति ईश्वर की खोज के लिए प्रयत्नशील रहता है तब उसे भगवान की प्राप्ति हो ही जाती है। इस तरह यह जो रासलीला है ,यह कोई एक रात्रि की घटना मात्र नहीं है । यह तो संसार में जीव की ब्रह्म से महामिलन की चिर-नवीन और चिर-प्राचीन अभिलाषा है । रासलीला के प्रसंग को यद्यपि जिस भाव-प्रवणता के साथ महाराज जी प्रस्तुत किया ,उससे श्रोता भाव विभोर अवश्य हो उठे किंतु अतृप्ति का भाव सभी के भीतर बना रहा। कारण यह था कि जिस रसमयता के साथ श्री राजेंद्र प्रसाद पांडेय जी रासलीला और गोपी गीत के प्रसंगों को श्रोताओं के समक्ष उपस्थित कर रहे थे ,वह प्रसंग कम समय में पूरा होने वाला विषय नहीं था । उसके लिए तो अगर एक सप्ताह तक यही प्रसंग सुना जाए ,तो भी शायद कम रहेगा । किंतु सीमित समय में भागवत के विविध अंशों को वाचन करना कथावाचक महोदय की विवशता रहती है।
प्रारंभ में काफी समय गिरिराज पर्वत को भगवान कृष्ण द्वारा अपनी एक उंगली से उठा लेने की कथा भी कथावाचक महोदय द्वारा अत्यंत आकर्षक रीति से वर्णित की गई । कितना आश्चर्यजनक है कि भगवान कृष्ण ने इंद्र के अभिमान को चूर-चूर करते हुए वर्षा के प्रकोप से ब्रजवासियों को बचा लिया और सात दिन तक इंद्र घनघोर वर्षा करता रहा । लेकिन गिरिराज पर्वत ने छत्रछाया बनकर समूचे ब्रज की रक्षा कर ली। इतना पानी कहाँ गया? इसका एक अन्य प्रसंग त्रेता युग से जोड़ते हुए महाराज जी ने बताया कि एक समय था जब सीता जी ने ऋषि अगस्त्य को भोजन के लिए आमंत्रित किया था और उस समय भगवान राम ने ऋषि अगस्त की भूख को अपने चमत्कारी तुलसी के पत्र के द्वारा तृप्त कर दिया था । इससे प्रसन्न होकर अगस्त्य ऋषि ने द्वापर में गिरिराज पर्वत के ऊपर अपनी अलौकिक शक्ति का परिचय दिया और पानी की एक बूँद भी गिरिराज पर्वत से नीचे ब्रज वासियों को भिगो न सकी। विभिन्न कथाओं को आपस में मिला देना ,यह सृष्टि के निर्माण और उसके जीवन-चक्र की एक अद्भुत विशेषता है। कथाओं के माध्यम से महाराज श्री श्रोताओं को अध्यात्म की साधना का पाठ पढ़ाते रहे । आपने गिरिराज पर्वत प्रसंग को भागवत में भगवान के अनवरत दर्शन का शिविर की संज्ञा दी और कहा कि सात दिन भगवान और भक्त एक दूसरे को निहारते रहे ,निकट का संपर्क लाभ प्राप्त करते रहे तथा उनका आध्यात्मिक उन्नयन हो सका इसके लिए गिरिराज पर्वत की लीला द्वापर में रची गई। इसीलिए जब इंद्र ने भगवान कृष्ण से क्षमा याचना की और अपने अहंकार पर खेद प्रकट किया तो कृष्ण ने यही कहा कि तुम्हारे कारण मेरी लीला सफल हुई और मुझे सब का सानिध्य मिला । कथाओं में कुछ विचार-सूत्र श्रोताओं को प्रदान करते रहना तथा उन्हें आधुनिक चेतना से जोड़ते हुए व्यक्ति के जीवन में व्यवहार की कला बना देना यह महाराज श्री के कथावाचन की विशेषता रही।
सीमित समय में रुकमणी-विवाह का प्रसंग भी महाराज श्री ने वर्णित किया । रुक्मणी का पत्र ,श्री कृष्ण द्वारा उस पत्र को सुना जाना और फिर रुकमणी का विवाह उसकी इच्छा के विरुद्ध शिशुपाल से न करा कर भगवान कृष्ण ने जिस वीरोचित स्वभाव का परिचय दिया ,उसने कथा को स्त्री की स्वतंत्रता और स्वाभिमान के साथ जोड़ दिया ।
भागवत की कथा को अधिकार पूर्वक श्रोताओं के सम्मुख माधुर्यपूर्ण रसमयता के साथ प्रस्तुत करने वाले कथावाचकों में अग्रणी श्री राजेंद्र प्रसाद पांडेय की कथा-श्रवण का लाभ अठ्ठाइस अप्रैल दो हजार बाईस को मंदिर वाली गली ,रामपुर के श्रोताओं को मिला । यह अहोभाग्य ही कहा जाएगा ।
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लेखक रवि प्रकाश बाजार सर्राफा रामपुर उत्तर प्रदेश मोबाइल 99976 15451