‘रात’
रात जानती है, उसने क्या- क्या नहीं देखा है अपनी आँखों से, कभी चाँद तारों के साथ कभी चाँदनी में तो कभी घनघोर अंधकार में। लुटती जनता मिटती आबरू, लहूलुहान देह , गिरती लाशें, टूटते ताले , वीरान घर , आत्महत्याएं, जघन्य अपराध,
पर बेबस सी सिसकती है , ओस बन बरसती है। धूप आने पर छुपती है ,अगले दृश्यों को देखने के लिए खुद को पाषाण बनाती है।
रात जानती है सबके राज….