राजा और पपीहा
हीरों से जड़े एक पिंजरे में जो था सोने से बना
राजा ने डाल पपीहे को बोला एक गीत सुना।
पपीहे के मुँह से आह के जैसी एक आवाज़ निकली
पपीहा था पिंजरे में ऐसे जैसे जल बिन कोई मछली।
राजा को आया क्रोध बड़ा सो ज़ोर से वह चिल्लाया
मृत्यु का दण्ड मिलेगा यदि तूने एक गीत न गाया।
पपीहे ने कहा सुन ओ राजा यह मृत तन कैसे गायेगा
मेरी आत्मा तो वन में है उसको तू कैसे लाएगा।
मेरा हर एक स्वर स्वतंत्र है और मुक्त हैं मेरे गीत
मैं कैसे एकाकी गाऊँगा जब विपिन में रह गए मीत।
कुछ इतना क्रुद्ध हुआ दंभी पपीहे के तर्क को सुनके
सभा सम्मुख ही मारा उसने गले को उसकी मरोड़के।
हत्या निरीह की देखकर प्रकृति भी रोने लगी
क्षण भर में ही अति तीव्र वहाँ वर्षा भी होने लगी।
अगले पाँच सप्ताह अविरत वृष्टि ने किया प्रहार
जलमग्न हुआ साम्राज्य तथा हुआ प्रजा का नरसंहार।
अपना भाग लेने हेतु गिद्धों का जमघट आया
नोच-खसोट के हर शव के माँस को सबने खाया।
राजा एवं पपीहे की आत्माएँ सब देख रही थी
क्यो प्रजा को दंड मिला राजा की आत्मा पूछ रही थी।
राजा के प्रश्न पे हँसते हुए पपीहा ये बात कहता है
राजा के कुकर्मों का दण्ड तो प्रजा को ही मिलता है।
-जॉनी अहमद ‘क़ैस’