राजासाहब सुयशचरितम
दान करहु हर दिवस अपारा ।
वृद्ध,तरूण,मुनि करही जयकारा ।।
देखही धन न कर में कितना ।
प्रभु आंँख मूदि देत सब जितना ।।
मोह न माया प्रभु स्पर्शा ।
रहेउ धरा कोउ कोटि अरसा ।।
शिक्षा बड़ न कोउ धरा धामा ।
शिष्य गरूहि पद करहु प्रणामा ।।
भूलेउ जे संस्कार प्रिय वाणी ।
तेही धरा वो अधमहि प्राणी ।।
सत्संगति पारसहि सुहावा ।
पड़त लौह स्वर्ण बनावा ।।
कालिख मह जो रहही लुकाई ।
निश्चय तेही कालिख लग जाई ।।
दो0- कहही राजासाहब तव,चारहु नीति बखानही ।
कलियुग स्वारथहि आवेशहि मिथ्या दोष लगाही ।।
रखहु लगाव जेहि उर ज्यादा ।
तेहि नर पहिलेही करही विश्वासघाता ।।
कपटी रूप छिपावन लागा ।
बगुला भगत सोन सुहागा ।।
जानही नही कछु नर सच्चाई ।
कारज निकालन करही हिताई – मिताई ।।
जे नर बढ़हि उच्च आकाशा ।
ते सब घेरहि समहि कुंहासा ।।
धन,जन,मन सब परिखेउ तोही ।
दुर्बलता का तुम्हरे तन होही ।।
खाएहु हक जे मारेहु पचारी ।
ते नर ये जग नरकहि अधिकारी ।।
विधवा,वृद्ध और अंग – भंगा ।
होहु सहायक हरदम संगा ।।
लगाएहु मस्तक शीतल चंदन ।
तेज बिखेरत परशुराम नंदन ।।
दो0 – पर पीड़ा देख हँसहि जो,करहि न कछु कम त्रास ।
कहत आनंद राजासाहब भज,ते नर होहहु नास ।।
अमर तेहि मानुष जग होही ।
जे प्रभु नाम रखत उर अंतस्थोहि ।।
देहहु नाहि किसी को त्राना ।
मम् करनी इतिहास बखाना ।।
योद्धा जीव समर जब जाई ।
सीखत युद्ध कुशल निपुनाई ।।
ताकर मारग नाहि कोउ बाधा ।
जीवन – मरण धरा ऐही लागा ।।
होत भोर जब रवि उगाहि ।
सकल तमस तत्क्षण छट जाहि ।।
राजासाहब हृदय उदारा ।
करहु सदा जन पर उपकारा ।।
धोवत तन सब रगड़ रगड़हि ।
मन मस्तिष्क कोउ फरक न पड़हि ।।
तब तक मान ज्ञान नही आहि ।
जब तक मनहि बंधक न होही ।।
दो0- होहहु नही प्रश्नही जब उत्तर,मनु मन कपोल बनाही ।
जानत प्रभु सबकी करनी,जिह्वा जाहि लपटाहि ।।
प्रभु शीतल जल कर स्नाना ।
करहु गुरू,पितु, मातु प्रणामा ।।
अंधविश्वास इक अस धुआँ ।
फैलत बिनु अनल जन समूहा ।।
अहंकार जब मन मे उपजहि ।
लागे बिनु पंख अम्बर में उड़ही ।।
बहही जबही बसंत बयारा ।
कोकिल कूंजत अरण्य तरूवारा ।।
स्वर्ग से उतरहि जब मां गंगा ।
पावन अमृत धारा धरा प्रसंगा ।।
कलियुग रूप भयहु विकराला ।
सब नर – नारी लोलुप जंजाला ।।
डिजिटल यंत्र आलसही बनाई ।
मन,मस्तिष्क उर काम जगाई ।।
दो0 – पुण्य पुनीत ये जग मा, मिलही न हर नर कोय ।
कहत आनंद हस्ति मस्तक मणि चंदन, कोउ – कोउ वनही होय ।।
भाव भजे नर प्रभुही मिलही ।
तरू उखाड़न धरणी न हिलही ।।
धनही अर्जन में ये जग लागा ।
पुण्य करइ कोई – कोई सतभागा ।।
लगे निहारन सबके अंगा ।
नीयत खराब मन होहहु दंगा ।।
झूठी मीडिया झूठी राजनीति ।
लागे मिटावन धर्म, जातहि प्रीति ।।
सब नेतागण वाणी लुभावा ।
जीतहि जबहि मुख न दीखावा ।।
जनता जनांर्दन करहु तख्तापलट ।
करहु बहिष्कार भ्रष्टाचार, कपट ।।
लगाहि दिखावन जनता सपना ।
पूर्णही स्वारथ केवल अपना ।
बल प्रपंच रचहि हर बारा ।
निज वृद्धि लागन संसारा ।।
दो0 – जिस देश न जनजागरूकता,नही जनतंत्रहि मत ।
ते देश होहही परतंत्र, होत यही अभिव्यक्त ।।
मनहि उपजहि लालच कामुकता ।
ते समय होही बुद्धि क्षीणता ।।
जाकर नाम कलियुग प्रेम माहि ।
ते संज्ञाहि हवस कामनाहि ।।
होही न भ्रात – भ्रात के संगा ।
फूटही घर होइही तव जंगा ।।
मति बिगाड़न लागेन श्रीमति ।
जेनकर कहल सुनत सब पति ।।
होहही जेकर मन नही दासा ।
ते हर क्षणहि रहत उदासा ।।
ये युग बड़ स्वारथ उपजाना ।
सबही फिरत निज काम निपटाना ।।
होहही जब धनही अंहकारा ।
चाहे खरीदन सकल संसारा ।।
आएहु कितना धरती सौदागर ।
सब मर मिटहू दफन भयो कबर ।।
दो0 – चूर गुरूर में जे नर,देगी इक दिन मृत्यु तोड़ ।
कहत आनंद प्रभु कृपासिंधु, सत नामहि मुक्ति मोड़ ।।
भटकहु मन,तन न भटकहू ।
मनहि नियंत्रण तन वश करहि ।।
लागे कहन राजासाहब नीति ।
तन सोई सफल जप नाम प्रभु बीति ।।
जीयत जीव ये जग सप्त दिनही ।
करत लोभ,क्रोध पाप अशोभनही ।।
जिह्वा देही प्रभु स्वाद न चाखा ।
भज प्रभु नाम हृदय मम् राखा ।।
सुनही कान प्रभु भगति वाणी ।
सुनन लगन सब परदोष बखानी ।।
जबहि लागि जीव आसक्ति ।
उन्मुख पाप पथ छूटही भक्ति ।।
लगे करन सब भोग जहाना ।
वृद्धावस्था कल्पहि मर जाना ।।
चढ्यौ जवानी मन नही मानी ।
झूठही फिरत बनत सब ज्ञानी ।।
दो0 – ढ़ोंग, ढकोसला ये जग मा, फैलहु अति विस्तार ।
कहत आनंद पूर्ण स्वछंद, कोउ नाहि मक्ति विचार ।।
स्वारथहि सब प्रभुहि पुकारा ।
बिनु स्वारथ ये जग निस्तारा ।।
गयो युवापन आयौ बुढ़ापा ।
ते नर नरकही प्रभु नाम न जापा ।।
राजासाहब नीति बखानी ।
बोलेउ तोल हृदय मधु बानी ।।
जिन कर रक्षक ब्रह्म,विष्णु महेशा ।
ते राजासाहब कोउ दुःख न क्लेशा ।।
बैठेउ जाई ध्यान लगाई ।
मन विचलित नही होय गोंसाई ।।
होउ न सत्य जो आँख निहारा ।
होइ ते सत्य जे जाँचहु पड़तारा ।।
सुनहु कान निंदा पर बुराई ।
सुनही न प्रभु भगति गुणताई ।।
धनाहीन नर जब हो जाई ।
पेट न भरहि मति विकलाई ।।
दो0- देख पर नारी सम्पत्ति सारी,होहु मनहु विकार ।
कहत आनंद ये जग, है मोह – माया के द्वार ।।
मनही लागहि जब क्रोध,काम वासना ।
होहु अंहकार प्रभु नाम न जपना ।।
जितना नाम जपहि मन माहि ।
सुख,आत्म, मोक्ष गति ते पाहि ।।
रहत डूबन जस शंभु कैलासा ।
मन न रख्यौ इक पलही दुरासा ।।
रहहू जितना व्यस्त प्रभु नामहि ।
मन संताप, भय नही आवही ।।
मरण इक दिन सत्य संसारा ।
धन,स्त्री,पुत्र कोउ न सहारा ।।
स्वारथही सब रोवही प्राणी ।
पर दुःख बुझहू नही सारी ं।।
गुरूत्वाकर्षण जस पृथ्वी समाहि ।
तस मानव हर पल पूर्ण स्वारथहि ।।
है अहंकार जे रूप,धन, गण पर ।
ते सब स्वारथही करही समर्पण ।।
होहु समर्पित कौन यहाँ,बिनु कछु स्वारथ लेन ।
कहत राजासाहबही, करही निज हित दिन – रैन ।।
उठही वासना मन बुलबुला समाना ।
पल महुँ जन्महु पल में मराना ।।
कलियुग लागहि काहु नाहि शापा ।
बढ़हि दाप भव, रोग संतापा ।।
अवनि सम्पत्ति अवनहि रहही ।
तुम्हरो कर्म साथ बस जहही ।।
निद्रा लागन बहुत मन भावा ।
पेट भरन पैर जग भटकावा ।।
जन्म हुआ कारण जिस गाही ।
लोग भूल माया मोह समाही ।।
राज – काज सब सिर पर धरही ।
धर्म विराजत प्रभु अवतरहि ।।
राजासाहब राजघराना ।
सकल द्रव्य, गुण के खाना ।।
विध्सिवत करी प्रभु पूजा अर्चना ।
करही पूर्ण जो देही सांत्वना ।।
दो0 – स्वयं सुरक्षा करही नर,जही प्रशासन साथ ।
कहत आनंद हवा जे दिसि बहही,उधरही रखियो माथ ।।
तोड़़ही विधान करही मनमानी ।
तेही नर लोकतंत्र खतरहू जानी ।।
धर्म से चलती हो जब सत्ता ।
लोकतंत्र चढ़ही तव विनाशहि हत्था ।।
हिंदू मुस्लिम या अन्य धर्मही जन ।
सकल सृष्टि पंचतत्वहि कण – कण ।।
जेहि जाकर घर को उजाड़े ।
तेही उजड़ही ये न बिसारे ।।
वाणी ही बड़ अपराध कराहू ।
मारन अपराधी बड़ जेहू चढ़ाहू ।।
करही जो प्रेरित गलत संसर्गा ।
करहू खतम ताकर पहले गूर्गा ।।
खुले हाथ म ेले घूमे हथियारा ।ं
जेही आवे सनक देही तव मारा ।।
पालहु कैसे नौ माह गर्भ महतारी ।
ते पुत्र तुम्ह कारज कउनही मारी ।।
दो0 – करही जे सत्ता की चटुकारिता,ते नर हैे सम्पन्न ।
उठाई आवाज जो विपरीत, होहहू ते मरणासन्न ।।
खुलही न पुस्तक एकहु क्षण भर ।
रहत व्यस्त डिजिटल यंत्रहि दिन भर ।।
प्रेम प्रसंग,चैट अरू काॅलिंग ।
नचावत कलियुग यही गूगली बाॅलिंग ।।
ताकर कोउ लक्ष्य नही माना ।
सबही अहंकार लिपटत जग जाना ।।
राजासांहब धर्मरत वाणी ।
करही सदा प्रभु के रज पाणि ।।
त्रंत्रही ये कलियुग कालही ।
होहही मानुष भोग विलासही ।।
कहत आनंद सब धनही कराई ।
कागद टुकड़ा न संग रत्तही जाई ।।
विरला ही कोई करत सेवकाई ।।
रहत तृण गेह सूखी रोटी खाई ।।
दो0 – कलियुग नारी कहही का, लोकलज्जा सब धोही ।
पर पुरूष पर स्त्री, हर क्षण रतहि होही ।।
कलियुग प्रेरित बुद्ध न कोउ सम ।
छोड़ राज – काज संन्यासहू धम्म ।।
राजासाहब कहही इक बाता ।
बिनु नाम प्रभुहि सब सभ्रंाता ।।
जाहही कौन लेकर सब ऐश्वर्य ।
जानही जब ये जग है नश्वर ।।
झूठही अहंकार झूठही क्रोधा ।
सब नर ये मनहीनहु बोधा ।।
कहत आनंद ये जग नीति ।
स्वारथ,भोग,लोभ है समाजमिती ।।
देखहु चक्षु बस निज लाभा ।
करहु अन्याय बीच बैठ सभा ।।
पर घर जेही आग लगावा ।
अग्नि न देखही फिर तुम्ही जरावा ।।
नशा, निशा, दुर्दशा कुदिशा ।
कलियुग हर द्वाण यही कहकशा ।।
दो0 – होहही अपार हर्ष,जीतहि नर छल,बल रण ।
कहत आनंद ये जग मा, चाहत स्वयंसिद्धि करण ।।
कलुुषित वसित धारण कर वेषा ।
ते नर कलियुग अधमही देखा ।।
जेहि मारग सब चलही अधर्र्मी ।
ताकर विमुख सकल सत्कर्मी ं।।
वैश्विक तपन बाढ़न लागे ।
पर्यावरण, प्रकृति बचावन जागे ।।
होहही जाइ जब अनहोनी ।
निज करम सब ऊपर श्रोनी ।।
राजासाहब धरा इक नामा ।
जाकर हृदय प्रेम सत्कामा ।।
क्षण – क्षण करहु प्रभु नाम जापा ।
सकल शोक, दुःख मन संतापा ।।
रूपही देखही नर सब कोई ।
जे तन नश्वर सदा होई ।।
लुकही छिपही कर हृदय अघाता ।
ते नर रहही संग संकट जाता ।।
परम धरम प्रभु मर्मही जानी ।
ये जग सकल मोह के खानी ।।
दो0- पढ़हु चारहु वेद,जानहु मन का भेद ।
कहत आनंद ये जग विरला दुःख बेध ।।
बोलन लागे जब मीठि बाता ।
बुझई तव होई स्वारथ ताता ।।
ये जग काहू न काहू के संगा ।
सब निज रौब करन लागे पंगा ।।
जेहि भड़काही अन्र्तवासना ।
तेही जन बचही बड़ कुकल्पना ।।
आपन राखौ मनहि सम्हारौ ।
होहही मन की जो आत्म न विचारोै ।।
कहही आनंद सब है परछाई ।
जब तक ज्योति अंदर जले जाई ।।
दो0 – लगे लगावन चारउ नीति ।
क्रोध,लोभ कही दण्डही प्रीति ।।
मन महु रहे जाकर वासना ।
कबहु न होहही उर सद्भावना ।।
हाथ साथ सब होही जुबानी ।
तेही नरोत्तम रहही कर्म के ठानी ।।
बोलत कहत सुनहि ये जग,करही कोउ -कोउ एक ।
कहत आनंद राजासाहबहि,सब पापी विरला नेक ।।
होहही वही जो कर्मही कीन्हा ।
जो संग खोदही वही पीना ।।
कर्मही मानुष सुख दुःख भागी ।
झूठही लगावत किस्मत दागी ।।
सबसेे बड़ प्रभु शिक्षा मानी ।
जेहि हीन भटकत पशुवत् प्राणी ।।
देखही परहि धन अरू नारी ।
मनहि न उपजहि लालच व्यभिचारी ।।
राखौ मन अपनही सम्हारी ं
मन भटकावत दुनिया सारी ।।
करहु चिंतन, चिंता नाही लागी ।
सुमिरत प्रभु नाम दःुख भागी ।।
देखत भौतिक दृष्टि तन धन ।
होही आध्यात्मिक देखन शुद्ध मन ।।
आत्मा जो चिर स्थाई ।
मानुष केवल तन छोड़ जाई ।।
दो0- भाग्य न जागहि बिनु कर्म, कर्म अनुपूरक भाग्य ।
कहत आनंद बिनु घर्षण, लागत कतही न आग ।
कैवल्य प्राप्ति मानुष इक लक्ष्या ।
ये जग माँस,मदिरा सब भक्ष्या ।।
राजासाहब जन हितकारी ं।
सबही कृतज्ञ करही जोहारी ।।
देखन प्रेम प्रभु भागन आवा ।
ये जग मनु स्वारथही बुलावा ।।
कोउ नाही कार्य बिनु स्वारथ करही ।
ये जग नर यश, धन, गण मरही ।।
होतही प्रातः खग कलरव करही ।
आलस दूर महु कारज लगही ।।
देख पीपिलिका क्रमबद्ध नजारा ।
एकता शक्ति बड़ परिवारा ।।
जे नर सहही अन्याय तपन।
ते खुद पाप करही वहन ।।
ये जग लड़ही निज अधिकारा ।
न तो बन दास करही गुजारा ।।
दो0 – सत्य न होहही सदा,जो देखही निज नयन ।
परिखेहु,जानेऊ हृदय मम्, तव करहु विश्वास हनन ।।
सकल लोक शोक मे बिताही ।
जेहि ओट भक्ति सब द्रव्यही पाही ।।
करहु पान आत्मा के अंदर ।
फिर समझहु ये जग है सुंदर ।।
जब अहंकार से सिर उठ जावा ।
तब संस्कार विलुप्तही पावा ।।
प्रथम विनाश कुमार्ग पथगामी ं
दूसर परस्त्री, पर धन पथगामी ।।
तीसर होही निज अभिमाना ।
चैथा स्वयं समझही भगवाना ।।
पंचम लागे दुर्बलही सतावा ।
षष्ठम् प्रभु भगति नाहि भावा ।।
सप्तम आलसही भोगविलासही ।
अष्टम सबके दास बनावही ।।
नवम् प्रभुही मार्ग नही चलही ।
दशम् ये नर नरकही मिलही ।।
दो0- ग्यारहवी प्रभु नाम न उर,सदा करत मदिरापान।
ते नर तन,मन,धनही, हो जाय शीघ्र अवसान ।।
लागे तम जब रूप दिखावा ।
जलही दीप कम होत प्रभावा ।।
जिनकर वाणी सुन हृदय हर्षाही ।
ये नर जग कमतर बहुताही ।।
आदि अनंत प्रत्यक्ष दिवाकर ।
रहही संग रत्नाकर सुधाकर ।।
राजासाहब हृदय उच्छाही ।
करही संकल्प जो मन महुँ पाहि ।।
त्रय नर ये जग दूरही रहही ।
स्वारथ,विश्वासघात, परस्त्री जले देखही ।।
गौरव,मान,धन, भूमि बड़ाई ।
ये जग मानुष करही तड़ाई ।।
जाकर हृदय प्रभु स्वरूप न बसही ।
ते नर हृदय सम ऊसर जँचहि ।।
ते नर नाही कोउ बड़भागी ।
बीतत संग संत भक्ति उर लागी ।।
दो0- मन महुँ लागे जब काम सताव, इन्द्रिय फड़कन लाग ।
ये सृष्टि कौन है, जे जलतही बुझाही आग ।।
कलियुग गौ भटकउ संसारा ।
कलियुग चरमहि भय विस्तारा ।।
मातु कहत अघन्य पूजत रहही ।
कलियुग नर बस सिद्ध स्वारथही ।।
राजासाहब संरक्षित गौशाला ।
देही कृषि कर भूषक तृण हाला ।।
सुनतही बात प्रभु धर मुसुकाई ।
हर क्षण सत्संगतहि बिताई ।।
करहु एकत्र सब कर समूहा ।
लगे सीखावन प्रभु गुणही मसीहा ।।
करहु जिक्र एकही घटना ।
सत्य सनातन नाही कल्पना ।।
एकदा बार प्रभु आई नताही ।
ते ऋतु सर्द कुँहरा पड़ जाही ।।
संध्या निकलहु साइकिल चलाई ।
लागन ठण्ड प्रभु निवास खोजाई ।।
पहुँचहु इक दलित के घर ।
बोले प्रभु सोने को दो बिस्तर ।।
देखी हालात जब राजासाहब ने ।
ठिठुरता बदन काँप रहे वृद्ध जनाने ।।
प्रभु सोई रहीे डाल पराली ।
मन महुँ करन लागे खयाली ।।
दो0 – दारिद,निर्धन काँप रहो,सोयव शरीर को मोड़ ।
देख ऐसा विचित्र चलचित्र,हुओ प्रभु प्रभाव बेजोड़ ।।
करहु प्रभु मन महुँ संकल्पा ।
उठाही दारिद मददही हल्पा ।।
जाहहु न ये त्रय स्थान ।
वीरान स्त्री, मदिरा, जुआखाना ।।
चिंतन मनन प्रभु ध्यान लगाई ।
बैठ निज निकेत वट छाई ।।
परम शांति प्रभुही पद पावही ।
आत्मा दरश शक्ति आवाजाहि ।।
जन्महु सबकर एक उद्देश्या ।
जन्म – मुक्त होहु क्लेशा ।।
ये तन जे भजनही लगावा ।
काम वासना, ईष्र्या,लालच,मर जावा ।।
करत सद्ग्रथन्हि अध्ययन ।
ध्यान लगाई आत्मा चिंतन – मनन ।।
राखही जे हर जीव सुख माही ।
पुण्य प्रताप तस दून बढ़ाही ।।
दो0- लीन,हीन, हुई जब आत्मा,पाप शाप कुमार्ग ।
मन निर्देश कर मम् निर्देश,पावही तव सुख अपवर्ग ।।
करहु न मूाख संग बाता ।
राखौ न कबहु कपटी े साथा ।।
बगुला भगत फिरत बहु लोगा ।
भगवा वस्त्र धारण कर ढ़ोंगा ।।
सबसे पवित्र वस्त्र ये मन ।
निर्मल प्रभु देखही यही हर क्षण ।।
देखही न निजदोष घनेरा ।
सूझही न चिराग तले अंधेरा ।।
आपन करनी आपही झेलही ।
जस करत तस मिलत पहेलही ।।
कलियुग नारी बड़ कामवासी ।
सिनेमा,मोबाईल सबही विनाशी ।।
मारन चाही जो पथ अरोड़ा ।
कबहु न मारही मन के कीड़ा ।।
मादक,वादक मस्ती में रहही ।
जितनही, चढ़ही उतनही जँचही ।।
दो0 – ब्रह्ममूहूर्त जे चक्षु खोलही,खोलत आत्म कपाट ।
कहत आनंद प्रभुहि सुनही,जो ध्यान न होही उच्चाट ।।
नल- नील शाप भयऊ वरदाना ।
तेही रघुवीर सेत हेतुु संधाना ।।
नियति कराइ पुण्य पाप लोभा ।
दशरथ स्वरभेदी बाण श्रवण ही चुभा ।।
होत पाप कबहु ऐसा गोसाई ।
लिखत जो प्रभु कौन बिसराई ।।
सिद्धांतवादी नर जग कोई – कोई ।
जेहि लाग ठान पूर्ण तेही होई ।।
सब कर बात न सिर पर धरही ।
मेंढक बोलहि न गिरहि अम्बरहि ।।
सत्यरूप तेही भूप परिभाषी ।
प्रजा प्रसन्न नगर सखरासी ।।
शंकर सम जे बैठ कैलासा ।
भजत प्रभु नाम बन दासा ।।
चमकत विधूहि दिवा न होही ।
मृत्यु सत्य फिरही न कोही ।।
दो0- सोच के लेखे कर्म लेखहि,मिथ्या प्रभु पर दोष ।
कहत आनंद सब अपनही कर्म, पावही सुख क्लेष ।।
जानहु महाराज सब अन्तर्यामी ।
परशुराम भक्त नमामी – नमामी ।।
संतोष प्रभुहि धरम अनुगामी ।
परशुराम भक्त नमामी – नमामी ।।
करही प्रभुही सब काज सहज ं।
चलत निरंतर रथ,फहरत ध्वज ।।
ये तन सबसे प्रिय मधुर वाणी ।
पावत कोउ – कोउ जग प्राणी ।।
कोकिल काक एकही अंगा ।
एक कर्कश एक मधुर विहंगा ।।
ऊर्मि न करही नाविक हानि ।
वेदकुशल ब्राह्मण खानदानी ।।
विपत्ति संकट खुद ही सहही ।
जे कहही ये नर जग हँसही।।
ज्ञान,कर्म हर युग विजेता ं
आलस नर मृत्युहीनही चेता ।।
दो0- मूलमंत्र तंत्र एक उपाया,करही भगति जे मन एकाग्र ।
ते नर होहही कर्म से,गुण वेदज्ञ अरू कुशाग्र ।।
हरषे, बरसे जस मरूभूमि पानी ।
राजाधिराज जनवत्सल राजधानी ।।
ते जन कबहु निराश न होई ।
राखी न जेही आस लगावही कोई ।।
सबही भ्रम ये जग मृगमारीचिका ।
झूठ, कपट चले सत्ता आजीविका ।।
ये कलिकाल जंजाल बहुल लोगा ।
छीन, झपट कछु निज न प्रयोगा ।।
चाहे सब जन रौब जमावा ।
बड़न लागे छोटही दबावा ।।
धन केवल सुख भोग के नामा ।
मिलही प्रभु मन निर्मल परिणामा ।।
राजासाहब लोकपरायण ।
मार्गदर्शन कर नर नारायण ।।
हाट बाजार सब भोग विलासा ।
जितना पानी उतना ही प्यासा ।।
दो0- राशि दासी कर्मही,सब हस्त रेखा की भूल ।
कर्मही कर दे राख को सोना,कर्मही स्वर्ण को धूल ।।
मन मान जब तक नही भागा ।
गर्दभही सिंह सीखावन लागा ।।
जुगनू रात्रि भल न मिटावही ।
भटकही पथिक राह देखावही ।।
देहहु प्रभु हर जीवही प्रतिभा ।
अन्य अलौकिक गुण – गण सतिभा ।।
लेत सहाय जो झूठ,छल प्रपंचहि ।
अपने ही हाथ नरक नर रचहि ।।
राजासाहब हर जीव प्रभावा ।
प्रभु जँह जाहि विनम्र स्वभावा ।।
वाणी वीणा कलश समाना ं
करहु न लेशमात्र अभिमाना ।।
लागे जब मनु काम नचावा ।
बिनु स्वयंभू भजन नाहि दुरावा ।।
लागे न कबहु आग मे आगा ।
प्रभु भगति नर छल दंभ न जागा ।।
दो0- कलियुग शिक्षाहीन नर,अति दिमाग के गाढ़ ।
पढ़ – लिख पर ऐसी दशा,घूमत फिरत बेरोजगार ।।
यंत्र तंत्र मंत्र अरू स्वारथ ।
निज लाभन मनु कोटि विचारत ।।
अटल विश्वास लगन कर्म सुभाषा ।
पर प्रेरित हित जीव परिभाषा ।।
होत सहाय भाग्य ते ऊपर ।
जे खोजही ते पावही उत्तर ।।
जाकर मन मनु डाह अरू मत्सर ।
छिन छिन जलही कबहु न सुखी नर ।।
महाराज काज करहु सब सुफल ।
हे ! प्रभु तुमही शरणागत वत्सल ।।
संतोष रोष, दोष कोटि कोसा ।
प्रभु जँह चरण इतिहास अवशेषा ।।
दोष लगावन हर नर चहही ।
अपनी प्रशंसा अपने मुंह करही ।।
जब ते सुने प्रभु तुम्हरी लीला ।
परम संतोष उर भवतारक शीला ।।
दो0- जे खोजही ते पावही,साकार निराकार रूप ।
घट – घट प्रेरित कर रहा,जाने कोउ विरला अनूप ।।
करहु प्रकृति तुम दोष गुण संकेत ।
उलझही जग ये मन आत्म – निश्चेत ।।
परम धरम मानव कर सेवा ।
मातु, पिता, गुरू स्नेही कुल देवा ।।
घटा करहु लाय अंधेरा ।
बिनु मार्तण्ड न होय सवेरा ।।
बिनु मज्जन मंजिल नही मिलही ।
आत्मा, मन जब तव एक न घुलही ।।
राजासाहब दीन – हीन पोषक ।
सकल समाज उद्धारक पोतक ।।
ब्रह्म जानामि ब्राह्मण ते ।
जन्म ते बढ़ कर्म महत्ते ।।
साकार आकार संस्कार घराना ।
ब्राह्मण कुल ज्ञान वेद पुराना ।।
जो सीखत लिखत हर रोज विचारा ।
ते नर होहही ध्यान ज्ञान भण्डारा ।।
दे0- मस्तक तिलक लगाय कर,मन महु राखौ खोट ।
करत दिखावा संत का, लिपटन पापन ओट ।।
सोचही सब संभव असंभव ।
जेहि हठयोग धरौ सब पुरबव ।।
जपत मोक्ष नाम हर क्षणही ।
राजासाहब संग रामही रमही ।।
कारागार जनहित जे जाई ।
भ्रष्ट शासन से लेही लड़ाई ।।
जनसमर्थन कर क्रांति लावही ।
राजासाहब जब हुंकार लगावही ।।
भय न मृत्यु कभी वीर सतावा ।
नारकीय जीवन सम मृत्यु समझावा ।।
कर्मही जीवन कर्मही पूजा ।
कर मन एकाग्र जे नर बूझा ।।
होहु सफल सतत् प्रसारा ।
मनही एकाग्र मोक्ष कर द्वारा ।।
राजासाहब जीवन वृतांत जे पढ़ही ।
मोक्ष गति परम पद कद पावही ।।
दो0- हरेक मनु गुलाम मनही, ताकर जीवन सफल न सोय ।
सोई नर जीवन सफल है,जाकर मन वश होय ।।
रचयिता – आर जे आनंद प्रजापति