राजासाहब सुयशचरितम्
राजासाहब सुयशचरितम्
भूतः वर्तः भविष्यतः ।
आगम सकल हृदयष्यति।
रूप तेजम् सम दिनकरम् ।
परशुरामभक्त हृदय विशालम्।
गुणागार ओंकार भजेहम् ।
रक्षति संहारम् सर्व लोकम् ।
संतोष परम सुखम् निजम् ।
आत्मज्ञान सुफल जीवनम् ।
ब्रह्म,विष्णु, त्रिपुरारी ।
त्वाम् जिह्वाग्रे वसम्।
अवनि अम्बरम् भूधर जलनिधम् ।
गजः,अश्वः,अस्त्र,शस्त्रः ।
धवल पुलकित उर वस्त्रः ।
दान, ज्ञानम् वेद, पुराणम् ।
उपनिषद,छांदोग्य निगमागम ।
प्रथमेश गणेश वंदनम् धराहम् ।
उत्कर्षम्, आदर्शम् प्रभु सुतम् ।
पादम् रहितम् अवसादम् ।
नमामि परशुभक्तम् ।
जानहु लोक परलोक प्रभुताई ।
प्रभु महिमा सुन सब हर्षाही ।।
डरहु, डरपत जेहि विधि नाना ।
काल, कराल, ब्याल हो रवाना ।।
ज्ञान,ध्यान प्रभु निज उर धरहि ।
सुर,नर,मुनि गुरू अनुसरहि ।।
होहही उछंग जो पातक नाशन ।
प्रभुहि नाम जपत धर आसन ।।
दो0 – ध्यान ज्ञान की खान है,जस जल सिंधु समाही ।
लगा डुबकी मुक्ता मिले, न तो देख परछाही ।।
परशुराम भक्त संतोष उर वासा ।
हरहु जन – जन के तुम त्रासा ।।
संतोष नाम परम अनुरागी ।
मोह, माया, ममता वैरागी ।।
क्रोध,लोभ,ईर्ष्या अरू कामा ।
धरहि प्रभु जितेन्द्रिय निष्कामा ।।
दो0 – मेल,खेल सब होत है,निज स्वारथ के माही ।
बिन स्वारथ के करहि न, सुर,नर, वृन्द ढिठाई ।।
एक बार तमकि प्रभु धावा ।
गरजहि मेघ,ब्राह्मण्ड निकाया ।।
होहहु बर्दाश पर नही हानि ।
कपट, छपट अरू छल अभिमानी ।।
राजनीतिज्ञ तुम मर्मज्ञ होहू ।
समरथ तुम, न कछु संदेहू ।।
हँसि हँँसि बोलहू आपनि बाता ।
क्रोध को शोध बनावहु दाता ।।
दो0 – संुदर आसन, संुदर वाहन, हो प्रभु तुम करूणायतन ।
बिन नाम सुमरहि न भव तरहि, करहि लाख कोटि जतन ।।
दोषारोपण करहि संसारा ।
वृक्षारोपण न होही गंवारा ।।
पर्वत,प्रकृति,सरिता, रत्नाकर ।
छवि धूमिल गर हो न दिवाकर ।।
संतोष, जोश – खरोश पर्यायी ।
प्रभु करूणावत्सल वट छायी ।।
लगहू दरबार द्वार पर जिनके ।
फिरहू न मन फेरत रहे मनके ।।
दो0 – मारूत,वरूण,विहंगम गरूण, प्रभु तुम्हरो निज ओट ।
हाथ धरहू जिस शीश पर, देखहू फिर न खोट ।।
गज, बाजि प्रभु विराजहि ।
तुम सम दिनकर अवलोकही ।
प्रभु रूप धूप सुहावनम् ।
तस तेज मुख तम हरम् ।
संतोष परम विशेष ।
अवशेष न कछु रह गयौ ।
प्रभु मान, ज्ञान, से हो परयौ ।
ब्रह्म,विष्णु,महेश,सुरेश, गणेश ।
पूर्ण करे सकल मनोरथ ।
धन,धान्य कुबेर, लक्ष्मी ।
से प्रभु भण्डार भर्यौ ।
दस दिसि मसि तुम्हरही नामा ।
कौन करहु संग तुम संग्रामा ।।
हो प्रतापी तुम अतुलित धामा ।
करहू न निज प्रभु तुम विश्रामा ।।
देवन के तुम काज सवारे ।
परशुराम ले लक्षण अवतारे ।।
शरण तुम्हरे जो नर आवे ।
निश्चय भव – बाधा तर जावे ।
दो0- शरण,वरण,प्रभु कीजिए,समझहु आपन दास ।
मृत्युलोक भरा सारा शोक से,प्रभु करहु हरण मम् त्रास ।।
शंकर सम त्रिनेत्र तुम धरहु ।
जानहु सकल सृष्टि अंतरहु।।
सुरम्य,मनोहर जब तुम लागौ ।
शीतल,मंद समीर तव जागौ ।।
हटे, घटे न तुम्हरो महिमा ।
पावही पार न लघिमा गरिमा ।।
धरम् धारण कर धरणी आयौ ।
सत्य सनातन के अवगाहौ ।।
लगे पुकारन अति दुःख माही ।
सुमरहि नाम उछंग हर्षाही ।।
प्रभुहि महिमा है बड़ भारी ।
गावहि,सुनहि सकल नर- नारी ।।
भेदहि करहि न पशु द्रुम मानुष ।
प्रभु देखहि सब सम जस आरूष ।।
बैठ खाएहु सब जात अहारा ।
करहि न प्रभुहि कछुक बंटवारा ।।
दो0 -मन- मस्तिष्क कर एकहु,प्रभु बैठहि समाधि ।
सकल दुःख कारण एकहु,मन न होही स्थिराधि ।।
एकही नयन देखहि संसारा ।
अम्बरहि मांर्तण्ड जस तारा ं।।
वशिष्ठ कुल जन्महि प्रभुताई ।
सभ्य समाज समहु देवराई ।।
गुरू रामहि रघुवंश के होई ।
ते कुल प्रभु आभ देखाई ।।
भूदेव,भूप, राज संवारे ।
करहु जन – जन नाम जयकारे ।।
दो0 – एक से अनेक होत है,दर पीढी का काम ।
गोत्र पूज्य वशिष्ठ जिनका,गुरूहि रघुवंश कुल राम ।।
शंकर जब तक हो न सहाई ।
सुफल मनोरथ न होहहि भाई ।।
संतोष के नाम्नु मोक्ष छिपाही ।
बूझे जो विरला ये जग माही ।।
जन्महु प्रभु खरैला भूमि पावन ।
सुरम्य,मनोहर प्रकृति मनभावन ।।
तात, मातु त्रिपुरारी, सुमित्रा ।
ममता, वात्सल्य,ज्ञान संहिता ।।
दो0 – हृदय हरषहु,बरसहु सुमन, मुनि,देव,नाग, गंधर्व ।
प्रभु दर्शन दुर्लभहि,पावहि करहि जे गर्व ।।
जेहि दिवस प्रभु कोप दिखावा ।
मानहु मान न जेहि मनावा ।।
करहु भगति निशदिन कर जोड़ा ।
जपहु नाम भवमुक्त गुपुत आंेकारा ।।
जेहि पर कृपा करहि प्रभु दूना ।
ते नर पातक पुण्य प्रवीना ।।
होहही धन,अन्न जे बलहीना ।
करही भगति प्रभु चरणनीना ं।।
दो0 – चमकहि जुगनू आकाश में,तारामण्डल रश्मि न घटाई ।
जापर कृपा करहि प्रभु,काहु न आँख देखाई ।।
मरम, धरम,विधि ज्ञान के दाता।
उपनिषद, वेद, पुराण सब गाता ।।
मंगल कारण दुःख दर हारण ।
नाम संतोष प्रभुहि भव तारण ।।
महाराज गुण गूढ़ दिखावा ।
चाहिए फूल-फल न कछुक चढ़ावा ।।
प्रेम भगति जाके अंदर होई ।
प्रभुहि दर्शन तत्क्षण देखवाई ।।
दो0 – प्रेम से बड़ न कछु हवे, संस्कार, विनम्रता परछाई ।
ते नर पढ़ अनपढ़ होवे,जो जाहि सब बिसराई ।।
हृदय हृदयंगम् धरम के वाणी ।
बरसहि आनंद मरूस्थल पानी ।।
गुरू आदर करई जे न कोई ।
भटकत फिरत हर योनी जगाई ।।
अंग न संुदर मन शुचि होई ।
तेही नर मोक्ष राह बटोही ।।
रोवत चक्षु से अश्रु गिराई ।
भूल गयो जो प्रभुु प्रभुताई ।।
दो0 -ध्यान हटे न ज्ञान घटे,नित नित बाढ़हु जाई ।
निश्छल मन जो राखिहे, अंागन – कुटी छवाई ।।
कभहु आलसहू नाहि सिर माहि ।
चिर उत्तेजित हौसला आफजाई ।।
करम बड़ा ये जग तरणी ।
नित जन्मत मरत ये धरणी ।।
सोई अमर अजर नर होई ।
पुण्य, यश, प्रताप ये जग सोई ।।
रूप तेजवंत गुण शीला ।
जानहि कोउ न प्रभुहि लीला ।।
दो0 – अवनि अम्बर हृदय विशाल,राजासाहब परम कृपालु।
सत्यरूप ले अवतीेर्ण होहु, धर्मरक्षक विप्रेश निहालु ।।
तुम समरथ सब जान गोसाई ।
राजा नाम धरण प्रभुताई ।।
अस कहि मनहु मन विचारी ।
मातु सुमित्रा तात त्रिपुरारी ।।
शिक्षा तुम्हरो जगत विस्तारा ।
प्रभु महिमा तव वृहद अपारा ।।
मानक, सम्यक, करम विशेषा ।
हरते प्रभुहि सबही क्लेशा ।।
छं0 – भव अगाध प्रभु कृपा प्रसाद ।
ते ते सब जन तरहि ।
संतोष नाम उच्चरहि निज करम करही ।
ताहि भूत नाहि लोका ।
करत भेंट सप्रेम सभी से ।
हरहि प्रभु सब शोका ।
लगहि जयकारा जन- जन के द्वारा ।
मुनि, सुर, हर्षित कोका ।
मनहु न निग्रह इन्द्रिय विग्रह ।
कभहु नाहि फिर होखा ।
कारज संवारन प्रभु ।
करहु कृपा त्रैलोका ।
भव भवानी आगम जानी ।
काहू न प्रभु को रोका ।
दो0- मलय किसलय सुगंधित,ब्रह्म मुहूर्त जगान ।
करहि प्रभु नित नव ध्यान, हृदय इच्छा कल्यान ।
जीवनु नामु दूसर संघर्षा ।
देहहु जे ज अंतहु हर्षा ।।
जे रत गलत हर वक्ताहि ।
ते नर पशुहि समान विलाही ।।
होत ज्योत नही हृदय संदेशा ।
भटकत फिरत धरा सब देशा ।।
प्रभु हाथ कलम जब गहहि ।
होनी होत रहत नहि टरहि ।
दो0 – होनी- अनहोनी होत है,सब मन के खेल ।
सोच लिया जो मन में,सोई करत फिर मेल ।।
वृष्टि सुमन भई मेेघ गर्जही ।
जन – जन संतोष नाम सुमरहि ।।
लागे हाथ बजावन करताला ।
प्रभु निकले पहन दुशाला ।।
मंद – मंद फिर मुख मुस्काना ।
प्रभु उगहि जस रवि समाना ।।
सत्सगहि रंग जे चढ़हि ।
बिन विमान भवसागर तरहि ।।
दो0 – जन्म हुआ किस कारज को,मन जान न पाय ।
स्त्री,धन,घर,सम्पदा,बनावन अमोल जन्म गंवाय ।।
राजासाहब करहु निर्माणा ।
राखहु अस्त्र – शस्त्र कृपाणा ।।
रहेहु खड़े एक के आगे ।
सर्वसमाज, राष्ट्रहित जागे ।।
नारी शिक्षा प्रभु देहि बढ़ावा ।
करत जो दुई पीढ़ी घर छावा ।।
शोषित,वंचित दलित ठिकाने ।
लागे प्रभु अधिकार दिलाने ।।
दो0 -जाति भल सब अनेक है,सब मानव के देह ।
कहत आनंद परम कृपाल प्रभु देखहि न गेह ।।
राखहु सबसे प्रेम अनुभूति ।
मोक्ष प्रथम चरण ये जुगुति ।।
ईष्र्या,क्रोध,लोलुप अवसाना ।
बिनु प्रभु भगति न इति जाना ।।
जे सठ होही जाहि सुधरहि ।
होही जे बाल्मीकि ब्रह्माहि ।।
मूढ़हि कालिदास समाना ।
नामहि सुमिर भरो विद्वाना ।।
देत रहत इतिहास गवाहि ।
जीवन बदलहि प्रभु परछाहि ।।
ताकर करहि न कछुक बिगाड़ा ।
जेहि पर प्रभुहि करत रखवारा ।।
अविराम सतत् लक्ष्य संधाना ।
करहु सफल प्रभु जो कछु ठाना ।।
कवन सो काज धरा ये माहि ।
प्रभु सबहि कठपुतलि नचाहि ।।
दो0 – नाचत बन कठपुतलि,यह माया के संसार ।
प्रभु कृपा जापर करहि,सोई उबनरहार ।।
धन धर्म मर्म और रीति ।
प्रभु करहि सबही पर प्रीति ।।
कहन लगे प्रभुु वेद पुराना ।
सबहि जन्म लक्ष्य मोक्षहि पाना ।।
जनम – मरण बंधन छूट जाई ।
होहही प्रभु जापर सहाई ।।
निकट गेह एक वट वृक्षाहि ।
प्रभु जँह बैठी आसन लगाहि ।।
कलरव करत पक्षी आह्लादित ।
प्रभु ध्यानहि कोउ करहि न बाधित ।।
आत्मदर्श कर प्रभु जब उठयऊ ।
मुख पर तेज विराज हर्षयऊ ।।
जिन कर संग देत त्रैलोका ।
करहु न विस्मय मन महँु धोखा ।।
गाल बजावन बहु संसारा ।
ते नर सफल जे कर्मठारा ।
दो0 -दिनकर कबहु न कहउ, उगहि हम आकाश ।
सकल लोक तव जानहि,पड़त धराहि प्रकाश ।।
छं0 – नारी पियारी भई जब ते ।
भूल गयो सब मातु – पिता ।
सुंदरता के मोह बसा ।
लगे बिगाड़न सब रिश्ता ।
पालहि गर्भ जो नवम् महीना ।
करहि घर द्वार बिहीना ।
जे न करहि मातु – पितु सेवकाई ।
देत न प्रभुहि शरण अधीना ।
कलियुग दरश होत प्रवीना ।
लेही लुगाई चलहि नर ।
प्रदेश के कउना कोना ।
कहत आनंद प्रभु संतोष ।
मम् शरण कमल पद दीन्हा ।
श्रवण कुमार जस प्रभु ।
मोही आचरण कीन्हा ।।
राखौ मन उमंग उछाहा ।
विजय प्राप्त कर्म निबाहा ।।
स्वप्नहि नाम प्रभु जे लेहि ।
निश्चहि भव बाधा प्रभु गेहि ।।
कर्महीन नर मृत्यु समाना ।
जो जाचक पातक अवसाना ।।
रूप श्रृगार कर जिस्म दिखावा ।
कलियुग नारी कामुक भड़कावा ।।
वस्त्रहि अर्धनग्न विस्तारा ।
चलहि पहन सकल संसारा ।।
दुर्लभ कार्य इन्द्रिय संयमहि ।
कलियुग मिलही कोई विरलही ।।
बिनु प्रभु पद कद कोउ न बढ़हि ।
जब तक कृपा प्रभु नही करही ।।
सुनु गायउ संतोष नाम महिमा ।
पावहु भगति यश लोकहु गरिमा ।।
दो0-‘ कर्महीन मनु मरण,जस सूखहि तरू तरूण ।
पंखविहीन जस होकर उड़ही न अम्बरहि गरूण ।।
परशुराम भक्त सशक्त जनायऊ ।
रक्तपात से विमुख करायऊ ।
मन हरषे उपजे नाहि क्रोधा ।
प्रभु निज शरण मम् दे बोधा ।।
करहु कारज सृष्टि हितकारी ।
सकल मनोरथ तुम्हरो द्वारी ।।
करहु जो आत्महाता सुनु भ्राता ।
भटकहु लख योनी परितापा ।।
रीता कर मृत्युलोकहि जाई ।
बीता याद तुम्हरि बस आई ।।
जेहि प्रेम न होहु विश्वासा ।
चलहि न क्षण भर पावही त्रासा ।।
संदेह परम प्रेम जग बैरी ।
तोड़ही नाता करहि न देरी ।।
मन हर क्षणहि व्याकुल होही ।
सोच मे हर पल डुबा रहही ।।
दो0- संदेह देह पर करही,प्रेम न टिकही क्षण भर ।
टूट जात आनंद नात,प्रेम चलहि विश्वास पर ।।
देहु प्रेम प्रेमिका सम्पूर्णा ।
करहि न फिर इत उत क्रीड़ा ।।
करहि जे नारी पति संग घाता ।
पर पुरूष सेवन नरक निपाता ।।
सम जस पुरूष नारी संग करहि ।
ते नर नरक जाई विचरही ।।
कलियुग पाप बहूता भागी ।
होही अल्प प्रभु भगति जे लागी।
पेट भरन केवल बस चाहा ।
गलत व्यसन मन-तन में लगाहा ।।
अराजक भ्रष्टाचार बेईमानी ।
गढ़ बन गयो देश राजधानी ।।
धर्मही सब करहि राजनीति ।
जात – पात मत नाहि परमिति ।।
अपराध करहि जे उकसावा ।
तेहि कर सजा न कोई दिलावा ।।
दो0- छल प्रपंच जे न रचउ,ये कलियुग के देश ।
कहत आनंद पावत पीड़ा सज्जन साधु विशेष ।।
अनुभव होही न बिनु कर कर्मा ।
करहु संघर्ष सुख – दुःख हर धर्मा ।।
जाकर कर्म करहु अभ्यासा ।
होहु सफल नित नव प्रयासा ।।
जो चाहन तरूवर के छाही ।
बिन रोपित न मिटही परछाही ।।
समझहू मूल्य उस वस्तु की तबही ।
लागत जरूरत तव तुम्हही ढूढही ।।
रखहु सहेज परहेज कर जेही ।
लेहहु सुख जाकर तव देही ।।
प्रभुहि अंश ले भयऊ अवतारा ।
संतोष नाम मोक्ष भवतारा ।।
कलियुग चार स्वरूप विस्तारा ।
स्वारथ,काम,धोखा अरू दारा ।।
देखहि देख एक के जरही ।
मम् अधीन सरबस रहही ।।
दो0- काम बनावन लागे,बोलेहु मधुर तव वानी ।
कलियुग देखहहि अपनहु नैना,स्वारथ अधम अज्ञानी ।।
सत्य बात लगे सब कर्कश।
झूठ बड़ाई होहु बड़ हरष ।।
जेहि सतावे दारिद कोही ।
बिनु जल तपत बारिद तव होही ।।
ग्रीष्म ऋतु जब कूप सूखाही ।
आवत वर्षा ऋतु भर जाहि ।।
रखहि जे संयम धैर्य हृदयाहि ।
पावत मंजिल एक दिन आवहि ।।
करहु भगति राजासाहब स्वीकार ।
तुम हृदय सम्यक् ख्सरैला सरकार ।।
देही वचन जाके जुबानी ।
वशिष्ठकुल प्राण प्रण जानी ।।
तम प्रकाश नही लाभहु हाानि ।
प्रभु समरथ कर्ण सम दानी ।।
देखही सकल सृष्टि इक दृष्टि ।
होवही समता,क्षमता की वृष्टि ।।
दो0- राजासाहब जानहि, सबकर हृदय विचार ।
कवन करहि भगति मोरी,डालहु कवन दरार ।।
करही पूजा प्रभु शंख बजाई ।
हो नतमस्तक सुमन चढ़ाई ।।
करहु राजासाहब जब व्यंग्याना ।
चुप्पी साध बैठ सब विद्वाना ।।
बोलेहु जिह्वा हृदय विचारी ।
होहु न कोहू मम् करण दुःखारी ।।
धरेहु उपाधि हैती डाॅक्टरेट ।
करें स्वीकार प्रभु सबकी भेंट ।।
करहु विवाह निर्धन जन बेटी ।
करत मदद प्रभु दे धान्य पेटी ।।
संकल्प करहु जो मन माहि ।
गिद्धहि समही पंख्ख उड़ाही ।।
अंकुश करहि करन सब हारा ।
प्रभु बल वृहद तेज अपारा ।।
देव ,मुनि, नर, मातु अभारा ।
बिनु सेवा नही कोउ उद्धारा ।।
दो0- जन्महु संस्कृति सभ्यता,नारिहि के कोख ।
कहहु राजासाहब तव, सब ऋणी जननही होख ।।
लगे कहन इक कथा पुरानी ।
सुने लगे सब सृष्टही प्राणी ।
नाम परांतक एकहु राजा ।
चले लेही नर – नारी समाजा ।।
आई दरबार में इक दिन विधवा ।
कहन लागी सब आपन दुःखवा ।।
जब तक रह्यो पति मोहि संगा ।
देखत रह्यो सब कारज प्रसंगा ।।
देहहु भोजन न कछु पानी ।
कइसन पुत्र जन्महु गर्भानी ।।
सुनहु राजा करहि अति क्रोधा ।
देहु आदेश बोलाहु पुत्र अबोधा ।।
लेकर आयो सेनापति तबही ।
राजा एकटक रहहु अवलोकही ।।
मम् राज्य सह्यौ कोउ पीड़ा ।
जनकल्याण प्रथम मम् बीड़ा ।।
दो0 – मातु के हृदय दुःखाहि,पुत्र ते कवन कहाहि ।
श्रवण कुमार ले कांवर भयो,मातु – पिता अंताहि ।।
सुनत पुत्र रूदन कर लागा ।
भयो ज्ञात उर बोधही जागा ।।
आँख खुलहि तब ददेख उजियारा ।
मन महु मति रहे कोउ मारा ।।
तुरतहि जाई मातु गले लगावा ।
किए करनी पर बड़ा पछतावा ।।
बोलहि रक्षति रक्ष्यते धर्मा ।
सुख समृद्धि सब फैले घर मा ।।
रहही नारी जिस घरही प्रसन्ना ।
घेरहि दारिद दुःख न विपन्ना ।।
लक्ष्मी स्वरूप नारी शूर्पणखा ।
कुलनाशिनीत्र घातिनी सब शाखा ।।
दो0-नारिही घरही बिगाड़ी,नारिहि घरही सुधारी ।
कोउ सीता,सति सम, तव कोउ शूर्पणखा व्यवहारी ।।
समय मूल्य सबसे बड़ जाना ।
निकलहू प्राण तव का दवाखाना ।।
समय समर जीताहि हराहि ।।
काहू कटत ग्रह नक्षत्र हर्षाहि ।।
शैय्या पर कभी भीष्म पीतामह ।
रहहु कभी हस्तिनापुरहि प्राणाह ।।
राज्याभिषेक होही जाए जबही ।
पलटत समय गए रामहि वनहि ।।
जो होत सब कुशल समााना ।
होहही वही जो रचित भगवाना ।।
कर्म करन हाथन मे तोरा ।
फल प्रभु देहही ऊपर तै छोड़ा ।।
देखन लागे दिवा जब सपना ।
कर्म बिनु ये जगहि कल्पना ।।
राजासाहब तव मतिहि विचारी ।
मोह – माया बंधन जग सारी ।।
दो0- छूटही मोह न टोह तव,जब तक आत्म न ज्ञान ।
कहत आनंद जपत संतोष, विन आत्मज्ञान न निर्वान ।।
करत दान साधु विप्रहि रोजहि ।
दीन असहाय तोहि प्रभु खोजहि ।।
सुनते हो प्रभु सबकर संकट ।
लेते हो हर प्रभु तुम तत्क्षण ।।
न्याय के अवतरण न्याय के स्वामी ।
जानहु सृष्टि सकल अन्तर्यामी ।।
कबहु करहि न प्रभु विश्रामा ।
नित नव सकल जगहि संग्रामा ।।
पहुँचेऊ प्रभु महाकाल के द्वारा ।
सकल सृष्टि जो करहि संहारा ।।
चरित्रहीन नर मृत्यु समाना ।
गिरत नजर कभहु न उठाना ।।
कलियुग त्रास हृास कर ज्ञाना ।
भरहु व्यसन स्वारथ अभिमाना ।।
कलियुग व्याप्त झूठ प्रपंचहि ।
बैंठ सभा सब षड़्यंत्र रचहि ।।
दो0- सतयुग त्रेता द्वापर,रक्षहु धर्म सबही नर ।
आयहु कलियुग जबही तव,चढहु पाप सबके सिर ।।
शरणागतवत्सल प्रभु जे पाहि ।
कृपासिंधु तव होत सहाही ।।
आवौ हृदय न कबहु ग्लानि ।
राखौ प्रभु सेवकहि पानि ।।
जब प्रभु चलत काफिला तोही ।
देखत मेटत दुःख उर मोहि ।।
टरहि न करम गति सब होई ।
चाहहु जे बिन जल अंग भिगोई ।।
पर्वत रहही चलही आसमाना ।
अनंत असीमित है तव जाना ।।
अंहकार जन्म होहु अल्पहि ज्ञाना ।
ज्ञानवान फल सम द्रुम झुक जाना ।।
सोना,चाँदी,हीरा मणि माणिक ।
प्रभु बिन नामहि जग ये क्षणिक ।।
डरहि योद्धा नही कबहु समरहि ।
जीवन – मरण त्याग सब जहहि ।।
निकल योद्धा जब तेही रण में ।
नही करहु संकोच मरण में ।।
दो0- ये जग समर भूमि है,आपहु योद्धा समान ।
जीतहि जो मन को अपने,वही समदर्श भगवान ।।
सूक्ष्म अंग शरीरहि मनहि ।
करहु वश प्रभु नाम सुमरहि ।।
भोग विलासी वस्तु ओर ले जाहही ।
पवत मन उसमें ही सुखाही ।।
कबहु न सत्कर्म देही प्रेरणा ।
करही चाहत सब समयहि क्रीड़ा ।।
ग्रंथन पढ़न में मनहु न लागत ।
देखत व्यवभिचार भोग पथ भागत ।।
बड़ मुश्किल यह मन समझाना ।
सब कहूँ फिरत एकर बसमाना ।।
करहु तप विश्वामित्र भंगा ।
इन्द्रादेश गयउ अप्सरा रंभा ।।
लगे बजावन पाँव की पैंजन ।
विश्वामित्र बैठ धर आसन ।।
कामुक कला अदा समाही ।
क्षीण हीन जो करत ज्ञानही ।।
दो0- स्वरूप कामुकता से कर दियो, मुनिहि तपस्या भंग ।
नेत्र खुलन तब देखो,उड़ गयो मन के रंग ।।
हुआ ज्ञान विश्वामित्र तव जाना ।
दिया शाप हो पथर समाना ।।
कहन लगौ नारी के भेषा ।
नारी सम नही नरकहि देशा ।।
नारी अलग – अलग ये जग में ।
कोउ तपस्विनि कोउ अंग – भंग में ।।
नारिहि वह जलती हुई आगा ।
मरत,गिरत सम कीट अभागा ।।
कामिहि प्रभु शंकर को धावा ।
खुलत तीसरा नेत्र जलावा ।।
लागहि शरीर जे कामवासना ।
ते नर ये जग पशु समाना ।।
जाकर कछु लक्ष्य नही होई ।
सोचत काम कला नित सोई ।।
डूबन काम शरीरहि अंगा ।
खर्च करहु धन,सम्पत्ति चंगा ।।
दो0- ब्रह्मा दियो नारी को,काम शक्ति अपार ।
कोउ समझे ब्रह्मज्ञान को, बाकी सब डुबनहार ।।
राजासाहब सब मरमु समझावा ।
बिन जल नारी डुबावा,उठावा ।।
ऊर्जा शक्ति सब तुम्हरे अंदरहि ।
नचावत मन अपने कारजहि ।।
ध्यान भंग करहि स्त्रोत बहुत ।
खीचे मोह माया आकर्षण अंग अद्भूत ।।
प्रभु नाम नाव जो हुओ सवार ।
होहही सोई मोहमाया भव पार ।।
ये तन पंचतत्व समाहारा ।
पुनि मिलहु आगहि में जारा ।।
कर्म तुम्हरो बस अमरहि होई ।
एहि विधि जाने तुम्हरो सब कोई ।।
चलहु हृदय स्पंदन सतत ।
भगति मोक्ष भवतारक अवगत ।।
ज्ञान सबसे बड़ही श्रृंगारा ।
आवत जेहि विधि सुख संसारा ।।
दो0 – बिनु ज्ञान न विनम्रता,बिनु विनम्रता न मान ।
कहत आनंद प्रभु कर जोड़ी,विद्याहि संस्कारी गुणवान ।।
आगम निगम इतिहास पुराना ।
प्रभु संतोष करहि विधि गाना ।।
सात्विक मार्ग चलहि प्रभु जाहि ।
तमस उलूक नाहि निअराई ।।
मानस रखहि प्रभु के नामा ।
जस जल सिंधु द्वीप अभिरामा ।।
कण – कण,क्षण-क्षण करो सदुपयोगा ।
करहि अमावस तमस विरोधा ।।
जीवन तब तेहू पूर्णिमा होई ।
लड़त अमावस जन जे जोई ।।
सुख दुःख पड़त हर जीवनहि ।
सफल तेही जे हर पल संघर्षहि ।।
कामहि,क्रोध, ईष्र्या मद लोभा ।
ते नर नरकगामी विक्षोभा ।।
दो0- उमस से जल होत है,देही वर्षा संकेत ।
कहत आनंद प्रभु कृपा, उपजहि ऊसर खेत ।।
राजधरम और नीति निपुणता ।
राजासाहब सकल सम्पूर्णता ।।
RJ Anand Prajapati